Tuesday, April 6, 2021

मरिचझाँपि (उपन्यास अंश)

वैधानिक : मरिचझाँपि सुंदरबन क्षेत्र का एक द्वीप है जहाँ अल्पकाल के लिए शरणार्थी आ बसे थे | यह उपन्यास तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से भारत आने वाले शरणार्थियों के जीवन-संघर्षों की काल्पनिक और गल्प प्रस्तुति है | कथा में वर्णित स्थान-काल-पात्र और घटनाएँ सभी काल्पनिक हैं तथा किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से इनका कोई संबंध नहीं है | किसी भी तरह के सादृश्य को लेखक की कल्पना और महज संयोग माना जाए |    

- नील कमल 


तेरह मई की उस रात को याद करते हुए निखिल के चेहरे पर एक दहशत की याद जैसे ताज़ा हो उठती है | उसके चेहरे का रंग बदल सा गया | आँखें मानो स्मृति के किसी महासमुद्र में एक कुशल गोताखोर की तरह छलाँग लगाने को तैयार थीं | निखिल उस रात की स्मृतियों में डूब-उतरा रहा था | उन दिनों वह बीस-बाईस साल का नौजवान था | गौर वर्ण शरीर वाले सुदर्शन युवक निखिल का व्यक्तित्व किसी ग्रीक देवता की तरह आकर्षक था | कुदरत ने उसे वक़्त लेकर तराशा था | लम्बे बाल कंधे तक आते थे | कनपटी से नीचे तक आधा इंच चौड़ा खत | नाक नक्श जवानी के दिनों के सुनील दत्त के जैसे | कुल मिला कर उसके बाँकपन और उसकी अदा पर कई पन्ने खर्च किए जा सकते थे | निखिल ने अपने सपनों में रंग भरने के लिए एक बढ़िया कैमरा ले लिया था | उसकी खींची हुई तस्वीरें कलकत्ता के बड़े अंग्रेजी अख़बारों में छपने लगी थीं | नक्सलबाड़ी से लौटकर जो तस्वीरें उसने स्टेट्समैन को दी थीं उससे उसकी पहचान एक फ़ोटोजर्नलिस्ट के रूप में मुकम्मल हो रही थी | अपने एडिटर का वह लाडला बनता जा रहा था | निखिल जितना कुशल पत्रकार था उतना ही पेशेवर | उसने जल्द ही अपने भीतर उथल-पुथल मचा रहे भावों पर काबू पा लिया |  


एक कथावाचक की तरह वह उस रात के बारे में बता रहा था | 

“पुलिस-सुपर ने खबर देकर मुझे सावधान कर दिया और उस दिन मैं वहाँ से निकलने में कामयाब हो गया था, अन्यथा ..” एक सिहरन सी उसके बदन में दौड़ गई थी जिसे उसने किसी को महसूस नहीं होने दिया | 

“अन्यथा क्या..” ? मैंने उस अन्यथा की डोर को थामे रखा जिससे वह उसे पकड कर उस लम्हे तक वापस लौट सके | 

“कुछ भी हो सकता था | शायद मैं जिन्दा लौट ही न पाता | नितीश मंडल और उसके साथियों ने मुझसे कहा कि वे मेरे बाहर निकलने का इंतजाम कर देंगे | एक डोंगी मँगवाई उन लोगों ने | पतली सी | वे उस डोंगी को लेकर “माछ” पकड़ने निकलते थे | एक गरीब “जेले” था उस डोंगी पर | उन लोगों ने कहा कि मैं अपने सारे कपड़े उतार दूँ | जिंदा रहने के लिए आदमी क्या नहीं करता | मैंने अपनी पतलून और कमीज उतार दी | और बनियान भी | अंडरवियर रहने दिया | तीन चार लोगों ने मेरे बदन पर नदीतट के “कादा माटी” का लेप लगा दिया | सर से पाँव तक | मेरे लिए यह दुस्सह था | मुझसे कहा गया कि मैं डोंगी में लेट जाऊँ और कोई हरकत न करूँ | यह जेले मुझे अपनी डोंगी में लेकर बाहर निकालने वाला था”, कहते कहते निखिल  की आवाज़ में एक अकल्पनीय सा कम्पन पैदा हो रहा था | 

“लेकिन कादा माटी क्यों” ? मेरी इस जिज्ञासा पर निखिल के चेहरे पर मुस्कान खेल गई |

“पुलिस के लॉन्च ‘राउंड’ दे रहे थे”, निखिल ने मेरी आँखों में झाँकते हुए बताया, “सर्च लाईट की रौशनी में अगर उनको संदेह हो जाता कि किसी ‘मानुष’ को बहार निकाला जा रहा है तो मेरे साथ साथ वह गरीब जेले भी मारा जाता | शरीर में असह्य बेचैनी थी पर मैं हिल नहीं सकता था | लाश की तरह पड़ा रहा | सिर्फ मेरा कैमरा था जो मेरे साथ लौट रहा था | वह जेले किसी देवदूत की तरह उस गहन अंधकार में डोंगी खेता हुआ मुझे लेकर अगली भोर एक अनजान द्वीप पर पहुँचा | मुझे कपड़े दिए गए | किराये के पैसे भी उन लोगों ने ही दिए | वहाँ से जैसे तैसे कलकत्ता लौटा तो सुबह का अख़बार देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए” | 

“क्या हुआ था उस रात” ? मैंने पूछा | 

निखिल का गला भर्रा आया था | उसने सिर्फ दो शब्द बोले ,”ऑपरेशन मरिचझाँपि ” | वह थोडा बेचैन हो गया | उसने एक सिगरेट जला ली | दो तीन लम्बे कश लेने के बाद उसने मेरी तरफ देखा | मैं पहले से ही उसके चेहरे को गौर से देख रहा था | 

“मैं एक फ़ोटोजर्नलिस्ट हूँ | मेरा काम तस्वीरें लेना है | कहानियाँ सुनाना मेरा काम नहीं है | मैं आपको कुछ तस्वीरें दिखा सकता हूँ”, निखिल इस बात को लेकर बेहद सतर्क था कि उससे मैं कोई कहानी निकलवाने की फ़िराक में हूँ | यह हमारी पहली मुलाकात थी | 

मैंने कहा, “आप मुझे तस्वीरें ही दिखा दीजिए” | 

निखिल ने एक अधेड़ उम्र व्यति की ओर इशारा करते हुए कहा , “मिस्टर पाल, प्लीज़ हेल्प दिस जेंटलमैन” | 

“हलो सर, माइसेल्फ अमलेंदु दे” मैंने हाथ आगे बढाया | 

मिस्टर पाल ने थोड़ा संकोच के साथ कहा, “नमस्कार, देखिए अभी तो बहुत व्यस्तता है | आप ऐसा कीजिए कि किसी दिन मेरे दफ्तर में आ जाइए तो आराम से बात हो सकती है” | उसने अपना एक कार्ड मुझे पकड़ा दिया | 

अगले ही हफ्ते मैं मिस्टर पाल के कालेज स्ट्रीट वाले दफ्तर में था | मिस्टर पाल ने एक किताब संपादित की है मरिचझापी  पर | किताब में निखिल की खींची कई तस्वीरें भी शामिल हैं | मिस्टर पाल ने बड़े आदर से मुझे बैठने को कहा और चाय मँगवाई | 

चाय की पहली चुस्की अभी मेरे गले तक नहीं पहुँची थी कि मिस्टर पाल ने अपना संशय मेरे सामने रख दिया | उसने साफ़ शब्दों में पूछा, “क्यों जानना चाहते हैं आप मरिचझापी के बारे में ? अब तो भुक्तभोगी भी भूल चुके उस काले अध्याय को” | 

“बताता हूँ | पहले चाय ख़त्म कर लूँ”, मैंने माहौल को ज़रा हल्का करने के लिए कहा | 

मिस्टर पाल ने मुस्कुरा कर कहा, “प्लीज़” ..और इस बीच वह अपने जरुरी काम निबटाता रहा |

मैं आराम से चाय पीता रहा | चाय ख़त्म करके प्लेट सोफे से दूर फर्श पर रखते हुए मैंने कहा, “मैं पिछली सर्दियों में मरिचझाँपि गया था, मिस्टर पाल | कुमिरमारी के बहुत सारे लोगों से भी मिला | पूरे तीन दिन बिताये मैंने सुंदरबन में | और ऐसी कई यात्राएँ अब मुझे करनी पड़ रही हैं” | 

मिस्टर पाल के लिए यह बिलकुल अप्रत्याशित नहीं था | 

“तब तो आपने काफी कुछ पढ़ा भी होगा इस बीच | अध्ययन किया होगा” | 

“पढ़ रहा हूँ | सत्य तक पहुँचने की चेष्टा कर रहा हूँ” | 

“क्या करेंगे सत्य जान कर, अमलेंदु बाबू” ? मिस्टर पाल ने ज़रा एलर्ट होते हुए एक बार फिर मेरे सामने अपना सवाल दोहराया | 

“किताब लिखूँगा” , मैंने बहुत संयत होकर उसकी आँखों में झाँकते हुए अपना जवाब उसके सामने स्पष्ट कर दिया | 

“अच्छा ! ‘ए तो खूब भालो कथा’ | क्या लिखने जा रहे हैं आप ? रिसर्च वर्क लिखेंगे शायद, वो अमिताभ घोष वाली ‘हंग्री टाइड’ पढ़ी है आपने ?”, मिस्टर पाल ने सहज होते हुए कहा और मेरी तरफ देखता रहा | 

“उपन्यास.. मैं एक उपन्यास लिख रहा हूँ मरिचझाँपि  पर”, मेरे जवाब से मिस्टर पाल को थोड़ा विस्मय सा हुआ लेकिन उसने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा, “जरुर लिखिए | काफी चैलेंजिंग काम हाथ में लिया है आपने | हमने मरिचझापी के भुक्तभोगी शरणार्थियों की आपबीती पर एक किताब पब्लिश की अभी गत वर्ष | दारुण कष्टमय जीवन रहा उनका | अपने ही देश में भिखारी बन गए वे लोग” |

“मैंने पढ़ी है आपकी वो किताब | उस तरुण ऐक्टिविस्ट कार्तिक की आत्मकथा सबसे प्रमाणिक है इस किताब में, दिल को छूती है | क्या आप किसी प्रकार मुझे कार्तिक से मिलवा सकते हैं या कोई फोन नंबर ही..”, मैंने मिस्टर पाल की तरफ बड़ी उम्मीद से देखते हुए पूछा | लेकिन मेरी उम्मीद बड़ी जल्दी ही टूट गई जब उसने बताया कि उस व्यक्ति के साथ अब उसका कोई “योगायोग” नहीं रहा” | 

मुझे लगा मिस्टर पाल मुझसे कुछ छुपा रहा है | बिना योगायोग के यह कैसे संभव था कि ऑपरेशन मरिचझाँपि के दशकों बाद किसी भुक्तभोगी से उसकी आपबीती लिखवाई जाए और उसे छाप दिया जाए | मिस्टर पाल ने निखिल की खींची कुछ तस्वीरें अपनी किताब में सार्वजनिक की हैं | लेकिन वे सारी तस्वीरें ऑपरेशन के पहले की हैं | 

“देशभाग के बाद असंख्य ‘मानुष’ उस पार से पलायन के लिए मजबूर होकर इस पार आये | उनके घर जलाये जा रहे थे | उनकी संपत्ति लूटी जा रही थी | उनकी स्त्रियों का धर्षण हो रहा था | वे भूखे नंगे लोग इच्छामती पार करके उसपार से इसपार आये थे | बेघर, बेवतन | वे रिफ्यूजी थे, उद्बास्तु थे | वास्तुहारा मानुष थे वे | वे सैंतालिस के बाद से इसपार आते रहे थे, चौंसठ में भी आये और सत्तर के बाद भी | इसपार वे शरणार्थी शिविरों में रहते रहे | लेकिन सत्तर बाद वाले फेज में, इसपार के किसी कैम्प में उनके लिए जगह नहीं थी | उन्हें गाड़ियों में भर-भर कर दूर दण्डकारण्य भेज दिया गया | सरकार के लिए वे बोझ थे | अठहत्तर में इधर सरकार बदली | इस बीच वे संगठित हो रहे थे | पता नहीं किस प्रलोभन के वशीभूत वे लाखों की तादाद में सुंदरबन के इस मनहूस द्वीप पर आ बसे”, मिस्टर पाल  बीच-बीच में बोलता जा रहा था | 

“आपको क्या लगता है, एक सरकार ऐसे असहाय लोगों पर गोली क्यों चलाएगी, असंख्य गरीब लोगों की हत्या क्यों करेगी कोई सरकार” ?  मैंने मिस्टर पाल से सवाल किया | 

मिस्टर पाल ने इस बार कोई जवाब नहीं दिया मुझे | वह देर तक छत की तरफ देखता रहा | मकान पुराना था और उसकी छत गाटर डालकर सुर्खी-चुने की ढलाई से बनी थी | लम्बी साँस छोड़ते हुए उसने संक्षिप्त सा एक उत्तर मेरी तरफ उछाल दिया , “अमलेंदु बाबू, असंख्य मानुष मारा गियेछे” | 

“लेकिन रेकार्ड कहता है कि सिर्फ दो मारे गए थे | और यह सिर्फ एक इवैक्युएशन ड्राइव था”, मैंने सरकारी तथ्य का हवाला देते हुए मिस्टर पाल  को याद दिलाया | 

“नो इट वाज़ नॉट लाइक एनी इवैक्युएशन ड्राइव, अमलेंदु बाबू | इट वाज़ ए जेनोसाइड ! गणहत्या समझते हैं न आप” ?  मिस्टर पाल ने निष्कंप कंठ से कही थी यह बात | और इसके बाद लम्बे समय तक हम दोनों चुपचाप बैठे रहे | 

“यकीन नहीं होता मिस्टर पाल”, मैंने आगे बात बढ़ाने की एक आखिरी कोशिश की | 

“अच्छा आप भी तो अध्ययन कर ही रहे हैं न | उपन्यास भी लिख रहे हैं | तो कुछ तो सूत्र जोड़े होंगे आपने भी”, मिस्टर पाल अब मुझे ड्रिल करने की कोशिश में था | वह आगे भी बोलता रहा, “और इन सूत्रों के सहारे ही तो आप कोई कहानी कह पायेंगे | एक थियरी तक तो पहुँचना होगा न आपको” | 

“थियरी के बहुत करीब हूँ मैं, मिस्टर पाल”, कहते हुए उस दिन के लिए मैंने विदा लिया | 

निखिल ने वाकई कुछ बेहतरीन तस्वीरें उतारी थीं | तेरह महीने की अल्पायु बस्ती में क्या-क्या नहीं आबाद कर दिया था उन हाथों ने | लेकिन उनके आबाद सपनों ने वन-विभाग के ‘प्लान्टेशन स्कीम’ को उजाड़ तो कर ही दिया था | फिर भी यह वैसी कोई बड़ी वजह तो फिर भी नहीं थी कि सरकार उनपर गोली चलवा दे | बहुत सारे सूत्र इस अंतर्कथा को जोड़ते थे | गोली क्यों चली, इस यक्ष-प्रश्न पर आकर तमाम सूत्र उलझ जाते थे | इन उलझे हुए सूत्रों की तलाश जरुरी थी | कहते हैं कि जो सत्य इतिहास से छूट जाता है वह लोक कथाओं और किंवदंतियों में मिलता है | लोक कथाओं और किंवदंतियों में इतिहास से निर्वासित सत्य बचा रहता है | इतिहास से निर्वासित सत्य के अनुसंधान के लिए मेरा बार-बार मरिचझापी-कुमिरमारी जाना जरुरी था | 

तो आइए प्रिय पाठक, मैं अमलेंदु दे, इस अनुसंधान में आपको अपने साथ लिए चलता हूँ |


उस दिन सुबह से ही कुहासा सा | धुंध में कुछ साफ नजर नहीं आता था | फरवरी के शुरुआती दिन थे और हवा में सिहरा देने वाली ठंडक थी | जेम्सपुर से हमें मरिचझापी जाना था | श्यामल मण्डल और सुकुमार भोर से ही तैयारी में जुटे हुए थे | मनोरंजन मृधा जेम्सपुर में हमारे मेजबान थे, श्यामल के ‘पिसे मोशाय’ यानि फूफा | श्यामल कुमिरमारी के मूलनिवासी ठहरे | पिता की मृत्यु के बाद हिस्से की जमीन जायदाद बेच-बाच कर सोनारपुर आ बसे हैं | लेकिन सामाजिक इतने कि कुमिरमारी में सभी रिशतेदारों के साथ हर दुख-सुख में शरीक होते हैं |

आठ बजते-बजते पिसे मोशाय ने सबको आवाज दी – ‘आर देरी कोरा जाबे ना, बेरिये पोड़ते होबे एबार” | उनका अनुमान था कि मरिचझापी जाने में दो-तीन घंटे से कम समय नहीं लगेगा इसलिए देर नहीं करनी चाहिए | नाव लग चुकी थी | खाने-पीने का सामान वे सुकुमार को लेकर भोर में ही नाव पर रखवा चुके थे | लौटने में संध्या हो जाएगी | लौटते वक़्त हमें कुमिरमारी भी जाना था | यह हमारी योजना में था | हम सब घाट पर आ गए | पिसे मोशाय की टूरिस्ट बोट हमारे लिए तैयार थी | टूरिस्ट बोट पर अकेला टूरिस्ट मैं, यानि अमलेंदु दे, मरिचझाँपि की यात्रा के लिए तैयार था | मेरे साथ श्यामल मण्डल, सुकुमार, पिसे मोशाय और वह चालक जो इस नाव से हमें मरिचझाँपि-कुमिरमारी की यात्रा पर ले जाने वाला था, ये सारे लोग सहयोगी के रूप में थे और इस बात से काफी रोमांचित थे कि मैं मरिचझापी की कथा के अनुसंधान में यहाँ आया हुआ हूँ | 

जेम्सपुर, सुंदरबन क्षेत्र के सातजेलिया द्वीप पर है और हमें खाड़ी क्षेत्र में और दक्षिण की ओर यात्रा करनी थी | हमारे दाहिने सजनेखाली फॉरेस्ट रेंज के जंगल थे और बायीं ओर लोकालय | नाव तट छोड़ चुकी थी और दक्षिण की ओर बढ़ रही थी | कुहासा घना था और जल्द ही उसके छंटने के आसार दूर दूर तक नजर नहीं आते थे | मुश्किल से सौ मीटर सामने का पथ समझ में आता था | श्यामल मण्डल से मैंने पूछा –“कि, रोद उठबे तो नाकि” ? मेरी चिंता यह थी कि धूप न निकली तो हम कुछ भी देख नहीं पायेंगे, तसवीरें लेना तो दूर की बात है | पूरा श्रम व्यर्थ जाएगा | पिसे मोशाय ने मेरा मंतव्य ताड़ लिया और मुझे सांत्वना देते हुए बोले –“चिंता नेई बाबू, आर एकटु बेला गोड़ाले रोद्दुर उठबे’ | उनके अनुभव पर भरोसा करने के अलावा कोई उपाय भी नहीं था मेरे पास | हवा तेज हो रही थी | मैंने बैग से चादर निकाल कर उसे शरीर पर लपेट लिया | 

यह समय ज्वार का था | समुद्र का पानी नदियों की तरफ चढ़ रहा था | हम धारा के विपरीत चल रहे थे | दाहिने जंगलों की तरफ फॉरेस्ट विभाग ने नाइलोन के जाल का बेड़ा डाल रखा था हालांकि जगह पर यह काटा फटा हुआ भी दिखता था | जंगलों से बाघ निकलकर लोकालय की ओर न आने पाये इसके लिए सुरक्षादृष्टि से यह इंतजाम किया गया था | एक जैसे हरे भरे पेड़ दोनों तट पर दिखते थे | ये होगला गाछ हैं, मैनग्रोव एरिया में पाये जाने वाले वृक्ष | सातजेलिया की तरफ जिधर लोकालय है उधर एक सिरे से नदी पर बांध निर्मित है | नियमित ज्वार भाटे और लहरों की मार से तट के कटाव को रोकने के उदेश्य से | दूसरी ओर सजनेखाली के जंगलों में केवड़ा के वृक्ष ध्यान खींचते हैं, लंबे और छरहरे पेड़ जिनकी पतली और हल्की नर्म हरी पत्तियाँ जंगल के हिरणों का प्रिय आहार है | हेतल के वृक्ष जगह नजर आते थे, रॉयल बंगाल टाइगर जिनमें शिकार के लिए छुपे हो सकते थे | पेड़ों की डालियों पर बंदरों की उछल कूद नजर आ जाती थी यदा कदा | 

सुकुमार ने इस बीच बोट के नीचे किचेन में लूची और आलूदम तैयार कर लिया था और हमारे लिए प्लेट लेकर हाजिर था | सुकुमार के हाथों का यह हुनर भी गज़ब था और इसीलिए सुंदरबन की किसी भी यात्रा में श्यामल मण्डल सुकुमार को साथ लिए बिना नहीं चलते | हम बोट की छत पर कुर्सियाँ डाल कर बैठे थे | घण्टा भर नदीपथ पर यात्रा के उपरांत लूची आलूदम के बाद चाय का अपूर्व स्वाद लेते हुए मन में अगर कोई प्रार्थना थी तो बस यह कि धूप निकल आए किसी तरह | पिसे मोशाय का मेरे प्रति अनुराग था कि वे मरिचझापी-कुमिरमारी की इस यात्रा में हमारे साथ सिर्फ इसलिए चल रहे थे कि हमें किसी तरह की असुविधा न हो | उधर से आ रही एक  ट्रेलर बोट को आवाज़ देकर उन्होंने पता करना चाहा कि उनके पास मछलियाँ हैं क्या | शायद वे दोपहर के खाने के बारे में अभी से सोच रहे थे | मेरी तरफ देखते हुए बोले,” बाबू, पाखीरालय होए छोटो मोल्लाखाली दिए घुरे गेले ताड़ाताड़ी होतो किन्तु आमि आपनाके एकटु लोम्बा पथे निए जाच्छि, सामने रायमंगल पोड़बे, मरिचझापीर जंगल पोड़बे, आपानार भालो लागबे” | मेरी आशंका किन्तु अब भी बनी हुई थी | कुहासा बदस्तूर जारी था | मैंने कहा,” रोद उठले तबे तो भालो लागबे” | उनकी आँखों में विश्वास की चमक थी, बोले, “बाबू, एक्खुनई रोद उठबे, चिंता नेई” | 

मनोरंजन मृधा के तजुर्बे का हमें कायल होना पड़ा | साढ़े नौ बजे का वक़्त रहा होगा | कुहासा धीरे धीरे कम हो रहा था | धूप की सुनहरी आभा आसमान में आश्वस्ति की सूचना लेकर आ रही थी | सामने अपार जलराशि थी | आर पार कुछ समझ में नहीं आता था | श्यालम मण्डल ने पिसे मोशय की ओर देखते हुए पूछा, “एबार कि रायमंगले एशे पोड़लाम” ? पिसे मोशाय ने बताया कि सामने मोहाना से हमें बायीं ओर मुड़ना होगा और अब हमारे दाहिने जो जंगल आएगा वह माइचझाँपि फॉरेस्ट का पश्चिमी भाग है | मरिचझाँपि फॉरेस्ट का भूखण्ड उत्तर से दक्षिण की तरफ मानव जिह्वा के आकार का है | हमारी इस यात्रा का लक्षित पड़ाव मरिचझाँपि का उत्तर-पूर्वी कोना था | जहाँ तक जाने में अभी घण्टों का सफर बाकी था | 

सातजेलिया द्वीप का दक्षिणी भाग हमारे बायें हाथ की तरफ था और मरिचझाँपि के जंगल दाहिनी तरफ | सजनेखाली फॉरेस्ट रेंज हम पीछे छोड़ आए थे | इस भू-भाग की खासियत यह थी कि इसके एक तरफ लोकालय और दूसरी तरफ जंगल था | लोकालय से स्त्री-पुरुष छोटी-छोटी डोंगियों में मीन पकड़ने निकल पड़े थे | मीन का तात्पर्य चिंगड़ी के शैशव अवस्था के बीज-शिशु | यह इनके जीविकोपार्जन का प्रमुख स्रोत है | नदी तट पर केकड़े पकड़ने के लिए उतरे स्त्रियाँ और बच्चे यत्र-तत्र दिखाई देने लगे हैं | हमारी बोट मरिचझाँपि के जंगलों का पश्चिमी किनारा छूती हुई उत्तर दिशा में बढ़ रही थी | आसमान अब एकदम साफ हो चुका था | सर्दी का असर धीरे-धीरे कम हो चला था | आधे घंटे से कुछ ज्यादा वक़्त गुजर जाने के बाद सामने एक मोहना नजर आने लगा था | अब हम छोटो मोल्लाखाली के दक्षिणी-पूर्वी कोने और कुमिरमारी के दक्षिणी-पश्चिमी कोने को देख पा रहे थे | सातजेलिया को अपने बायें छोड़कर अब हमें मरिचझापी के उत्तरी भू-भाग को अपने दाहिने लेते हुए आगे बढ़ना था | इस बीच बांग्लादेश की बड़ी मालवाही जहाजें भी हमारे बगल से गुजर रही थीं | 

श्यामल मण्डल ने अंगुली के संकेत से दिखाया कि उसपार कुमिरमारी द्वीप का पालामारी घाट दिखाई दे रहा है और वापसी में हम यहाँ उतरेंगे लेकिन अभी हमें बागना फॉरेस्ट कैम्प ऑफिस में सरकारी अनुमति-पत्र के लिए जाना है | यह कोरानखाली नदी है | उत्तर में कुमिरमारी और दक्षिण में इसके मरिचझाँपि है | हम मरिचझाँपि को अपने दाहिने रखते हुए पूरब की ओर बढ़ रहे थे और मरिचझापी के उत्तर-पूर्वी भूखण्ड के करीब आ चुके थे | मनोरंजन मृधा ने एक वेदी की ओर संकेत करते हुए कहा,”ओरा एईखानेतेई प्रोथोम मारीचझाँपिर माटीते पा फेले छिलो” | वहाँ एक वेदी थी जिसे देखकर लगता था कि नियमित पूजा पाठ के लिए लोग आते रहते हैं | यह सुंदरबन के जंगलों में पूजी जाने वाली वनदेवी का स्थान था | बाँस और घास-फूस की छोटी सी छावनी थी जिसमें वनबीवी की प्रतिमा रखी है | मन्नत के लाल धागे और रंगीन कपड़े बंधे हुए | नदी के तट पर मानव-निर्मित बाँध के अवशेष अब भी सुरक्षित थे | बारह-तेरह महीने की आयु वाली इस उजाड़ बस्ती के कभी साबुत होने के भग्नावशेष | भीतर जंगल की ओर जाता हुए रास्ते नजर आते हैं लेकिन घने जंगल में नजर दूर तक इन रास्तों का पीछा नहीं कर पाती | उत्तर से दक्षिण की तरफ मरीचझाँपी के इस भूखण्ड के बीच से झिल्ला नदी भीतर की ओर बहती है | उस तरफ कुमिरमारी का बुधवार बाजार है, पालामारी घाट से पूरब की ओर | मैंने अपने मोबाइल फोन का वीडियो ऑन कर दिया और नाव को तट से सटा कर चलने को कहा | हर एक दृश्य चीज को मैं कैमरे में कैद कर लेना चाहता था | बीच बीच में स्टिल फोटो भी लेता रहा | कभी यह इलाका आबाद था | अब यहाँ मौत का सन्नाटा पसरा था | 

आगे आकार हमें एक और मोहाना मिला | मरिचझाँपि का उत्तर-पूर्वी कोना अब खत्म हो रहा था | मोहाने के उस तरफ और पूरब जाने पर बायीं ओर हेमनगर और दाहिने कालिकापुर फॉरेस्ट रेंज के जंगल | मरिचझाँपि के पूर्वी भाग की तरफ नदीपथ से बूड़िडाबरी जाने का मार्ग है जो सुंदरबन कोर एरिया की तरफ जाता है | मरिचझाँपि के उत्तर-पूर्वी कोने से तिरछे कुमिरमारी द्वीप पर बागना फॉरेस्ट कैम्प का ओफिस है | यहाँ बॉर्डर सेक्योरिटी फोर्स की एक टुकड़ी तैनात रहती है | यहाँ से हमें जंगल में प्रवेश के लिए आधिकारिक अनुमतिपत्र लेना था | हमने अधिकारियों को अपने आने का उद्देश्य बताया | हनें अनुमति मिल गई लेकिन इस हिदायत के साथ कि मरीचझाँपि के जंगल में कहीं भी नाव से उतरने की कोशिश न की जाए | वनविभाग के अधीन यह इलाका बशीरहाट रेंज में आता है | मरीचझाँपी अब एक जनशून्य द्वीप है | सन अठहत्तर में बांग्लादेश से पलायन करने वाले शरणार्थी जो दंडाकरण्य के शिविरों में बसाये गए थे उन्होंने यहा आना शुरू कर दिया था |

बागना फॉरेस्ट कैम्प ऑफिस से लौटते हुए हम एकबार फिर अपनी नाव को मरीचझाँपि के तट से सटाकर चल रहे थे | इस भूखंड के एक-एक इंच को बहुत करीब से देखते हुए और इतिहास के गर्भ में पड़ी एक दारुण कथा को महसूस करते हुए | लौटते हुए हमारी नाव पालामारी घाट पर आकर लग गई | श्यामल मण्डल के काका-जेठू सब यहीं बसे हैं इसलिए उनका अतिरिक्त मोह इस जगह से है | नाव से उतरते हुए पिसे मोशाय ने हमें सतर्क किया कि भाटा जल्द ही पड़ने वाला है इसलिए जल्दी ही वापस आ जायें | लेकिन कुमिरमारी में हमें कुछ ऐसे लोगों से भी मिलना था जो सन अठहत्तर-उनयासी की स्मृतियाँ सहेज कर रख सके हों | श्यामल मण्डल यहाँ के स्थानीय व्यक्ति थे लिहाजा यह कोई मुश्किल काम भी न था | 

एक बुजुर्ग जिनकी उम्र अस्सी के आसपास थी अपने घर के ओसारे में बैठे मिले | उन्हें दमे की गंभीर शिकायत थी | शक्ल से बीमार लगते थे | हमने पूछा उनसे, “आठात्तर साले जे शरणार्थीरा मरीचझाँपिते एशेछिलो तादेर कथा किछु मोने आछे कि” ? बुजुर्ग ने गमछे के कोर से अपनी आँख पोंछी और कहा,”अत्याचार कोरेछिलो, घर बाड़ी पूड़िए दिएछिलो, सब कथा आमार मोने आछे” | 

यह कहानी बहुत पहले से शुरू होती है | वह 1970 के  ज्येष्ठ मास की एक उदास शाम थी | खुलना के झरखाली ग्राम में सूरज अभी-अभी डूबा था पश्चिम में | रोज की तरह बाबा ने कार्तिक को आवाज लगाई. ‘ओरे खोका, दरजा’टा भालो कोइरा लागाइया घुमोते जास तोरा | आमि पाहाराय जाइताशी” |

पिछले कुछ महीनों से यह रोजमर्रा का काम हो गया है | रात के खाने के बाद पाड़ा-प्रतिवेशी सारे पुरुष मानुष नियम से मोहल्ले की हिफाजत के लिए रात जागकर पहरा देते | लूटपाट और आगजनी की घटनायें बढ़ती जा रही थीं | कार्तिक  के लिए यह सब एक पहेली जैसा था | वह सोच नहीं पाता कि अपने ही लोगों से आखिर हमें खतरा क्यों है | वे हमें क्यों मार देना चाहते हैं | क्या बिगाड़ा है हमने उनका |

झरखाली के माहौल में तनाव बढ़ता ही जाता था | कार्तिक देख रहा था कि लम्बे समय से अनवर उसके साथ खेलने नहीं आता | ठीक से बात भी नहीं करता था वह कार्तिक  से | उसदिन कार्तिक उसे खाने के लिए कुछ देने लगा तो उसने बड़े रूखेपन से जवाब देते हुए कहा.’ आमार खिदा नाई रे कार्तिक, तुई तोर खावार’टा खास’ | 

कार्तिक ने निश्चय किया कि आज संध्या वह फुटबाल खेलने के लिए अनवर को बुलाने उसके घर जायेगा | गोधूलि वेला में जब वह उसके घर पहुँचा तो दरवाजे पर ही ढेर सारे लोगों को देखकर ठिठक गया | बड़ी मस्जिद वाले मौलवी के साथ पंद्रह-बीस लोग आँगन के बाहर आमगाछ के नीचे खाट पर बैठे थे | वह केले के मोटे तने की ओट में छुप गया | अनवर कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा था | 

मौलवी ने अपनी टोपी ठीक करते हुए कहा, ’बेशी मेलामेशा कोरा दोरकार नाई | जेरकम बोइललाम सेइरकम कोइरा दरकार सकलके, बुझले तो ?’ सबने आज्ञाकारी बालक की तरह अपने सिर हिलाए | मौलवी ने उठते हुए कहा, ’आशताशी ताहोले’ | सब उठ खड़े हुए | अनवर के पिता मौलवी के पीछे-पीछे घर के बाहर तक आये | वह इन लोगों को देखकर थोड़ा घबरा गया और घबराहट में केले के झोंप से बाहर निकलने को हुआ | अनवर के पिता ने केले के झोंप की तरफ से पत्तों की सरसराहट की आवाज सुनी तो उधर नजर घुमाते हुए पुकारा, ‘के रे, के ओई कलागाछेर झोंपेर आड़ाले !’ कार्तिक  तबतक बाहर आ चुका था | वह सकुचाते हुए बोला,’चाचा, आमि कार्तिक, अनवर बाड़ीते नेई ?’ 

दौड़ता हुआ कार्तिक आँगन की तरफ गया | तब तक वे लोग घर से बाहर की ओर निकल चुके थे | अनवर भीतर कमरे में लेटा कोई किताब पढ़ रहा था | 

‘कि रे, तोर कि होइताशे, खेलते जाशनि केनो एतोदिन ?’

‘आमार शोरीर’टा भालो नाई रे | जर-जर भाब’ 

कार्तिक ने अनवर के माथे पर हाथ रखकर देखा | कपाल एकदम ठंडा था | उसे आश्चर्य हुआ कि वह इसतरह झूठ क्यों बोल रहा है |

‘कोई जर, किस्सू होयनि तोर | एरकम बायना धोरताछिश केनो रे पागला’ ?

 ‘तुई एखुन बाड़ी जा | काइल जामू माठे’, अनवर ने पीछा छुड़ाने की गरज से कहा | कार्तिक  उछल कर उठोन से बाहर निकल आया | जाते जाते जोर की आवाज लगाई उसने, ‘काल आशिस किन्तु !’

अँधेरा घिर रहा था | अब खेलने का समय भी निकल चुका | माठ पार कर वह खाल के किनारे किनारे ऊँचे बाँध को पकड़कर चलने लगा | सहसा आसमान में धुंए का गुबार देखकर वह आश्चर्य से भर उठा | इतना बड़ा गुबार चूल्हों के धुंए से संभव नहीं था | धुँआ मंडलपाड़ा की ओर से उठ रहा था | कहीं आग लगी हो जैसे | वह तेजी से धुँए की दिशा में भागा | 

पूरा मंडलपाड़ा धू-धू कर जल रहा था | उसका घर भी आग की चपेट में था | सबलोग बाहर से आग बुझाने में लगे हुए थे | एक अजीब सी चीख-पुकार का शोर चतुर्दिक व्याप्त था | सबकुछ जल तरह था | सारे लोग मिलकर भी आग पर काबू नहीं पा रहे थे | पोखर से दौड़-दौड़ कर वे पानी लाते थे और जलते घरों पर उलीच देते थे | बाँस, मिट्टी और फूस के घर दहक रहे थे | जबतक आग कुछ मद्धम पड़ती सबकुछ नष्ट हो चुका था | अगली सुबह वे राख के ढेर के बीच से अपने बचे-खुचे सामान निकाल रहे थे | उनके सिर पर कोई छत नहीं थी | 

अकेले मंडलपाड़ा ही नहीं खुलना जिले के इस भाग के गाँवों में इस तरह की वारदातें अब आम होने लगी थीं | देखते देखते पलायन आरंभ हो गया | बचे खुचे माल-असबाब को लेकर ये लोग अपनी जान की हिफाजत के लिए सीमांत की तरफ निकलने लगे, सीमा पार जाने के लक्ष्य से | वह 1970  का ज्येष्ठ मास था | 

झरखाली में पिछले कई महीनों से तनाव की स्थिति थी | नदी पर बाँध की मरम्मत का काम चल रहा था जिसमें मंडलपाड़ा से काफी लोग काम पर लगे हुए थे | ठेकेदार बड़ी मस्जिद के मौलवी का निकट संबंधी था | उसदिन ठेकेदार नशे में था | एक लड़के के ऊपर साइकिल समेत गिर पड़ा | थोड़ी कहा-सुनी हुई | वह गालियाँ देने लगा | लड़का भी अड़ियल स्वभाव का | और गलती तो ठेकेदार की ही थी | वह क्योंकर दबता उससे | आवेश में हाथ का फरसा चला दिया ठेकेदार पर | ठेकेदार वहीँ ढेर हो गया | नशे में तो वह था ही | उठकर घर जाने लायक भी उसकी स्थिति नहीं थी | अगलेदिन मस्जिदपाड़ा से एकदल लोग पंचायत के लिए बैठे गाँव में | 

मस्जिदपाड़ा की पंचायत का मानना था कि यह आक्रमण छोटी जात वाले हिन्दुओं की तरफ से था और उन्हें इस देश में ही रहने का कोई हक़ नहीं | कार्तिक  के परिवार में माँ-बाबा के आलावा एक बहन थी | थोड़ी सी जमीन थी उनके पास जिससे किसी तरह गुजारा हो जाया करता था | अब वह भी उनसे छिन रहा था | अपने बचे-खुचे माल-असबाब के साथ वे कालीबाड़ी के मंडप में शरण लेने को बाध्य थे | बाबा अपनी जान-पहचान के लोगों से संपर्क में थे जो उनको इस मुसीबत से बाहर निकाल सकें | लेकिन कहीं से कोई मदद भी नहीं आती थी | पास में अनाज के दाने तक नहीं थे | 

कार्तिक  का स्कूल जाना बंद हो गया | वह इसी साल नवीं क्लास में गया था | पढ़ाई लिखाई की कौन कहे अब तो जान के लाले पड़े थे | शाक के पत्ते उबालकर पेट जिलाते हुए जैसे तैसे जिंदा होने का अहसास था | वह भी कितने दिनतक चलता जब अपने आस-पास के लोग देश छुड़ाने पर आमादा हों | पूर्णिमा की रात थी वह जब वे, अपने समय के शरणार्थी कालीबाड़ी मंडप में रात के बीत जाने की प्रतीक्षा में थे और नींद थी कि आँखों में समाती न थी | बाबा ने कार्तिक  की माँ को धीमे स्वर में बताया, ’एकजन दालालेर साथे कथा कोइयाछि | से आमादेर ओपारे जावार बंदोबस्त कोइरा दिबे | टाका चाइछे | कलशी बाटी बिक्री कोइरा होक बा जेभावे होक एकटा किछु कोइरा दोरकार | एइभावे क’दिन बाँचा संभव | देशछुट आमादेर केऊ आटकाइते पारबे नाको |’ 

कलशी-बाटी बेचकर भला कितने पैसे आते | माँ के कुछ गहने थे जिन्हें अब बेचने की नौबत आन पड़ी थी | स्त्री-धन ऐसे ही दुस्समय में पुरुषों को बचाता आया है | माँ के गहने इस तरह जाते देखकर कार्तिक  को भारी कष्ट हो रहा था | वह सोचता था एकदिन वह माँ के लिए ढेर सारे हगने बनवायेगा | जब वह बड़ा होकर कमाने लगेगा | बाबा का चेहरा इनदिनों कैसा तो कठोर सा हो गया है | कम बोलते हैं | कम खाते हैं | ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ | 

दलाल के कहे अनुसार वे मय सामान घाट पर एकदम काकभोर में ही जा पहुँचे | दलाल का कहीं अता पता नहीं था | घाट पर उस अँधेरे में भी निरुपाय असहाय असंख्य मानुष-जन अलग अलग दिशाओं से आ रहे थे | मुँहमाँगी कीमत देकर डिंगी लेना जिनके बस में था वे उसपार जाने के लिए निकल जा रहे थे | किसिम किसिम के दलालों को घेरे लोग अपनी अपनी गुहार लगाते थे | कार्तिक  ने अधीर होकर पूछा, ‘बाबा, लोक’टा आशबे तो ?’ बाबा ने आश्वस्त करते हुए कहा, ‘आशबे आशबे, कथा दियेछे मानुष’टा’ | दलाल ने अपना नाम गोलाम मोहम्मद बताया था और आश्वस्त किया था कि वह उनके लिए डिंगी का इंतजाम तो करेगा ही, वह उनके साथ-साथ भी चलेगा और सीमांत पार करा देगा | 

गुलाम मोहम्मद जब घाट पर पहुँचा तबतक काफी देर हो चुकी थी | एक ही डोंगी घाट के किनारे लगी हुई थी, वह भी लगभग लोगों से भरी हुई | कार्तिक  का किशोर मन उस डोंगी की प्रतीक्षा करते करते ऊब चूका था जो उन्हें लेकर उसपार जाने वाली थी | वह एक क्षण के लिए बाबा के चेहरे को देखता तो दुसरे ही क्षण नदी घाट की ओर | इस संकट के आगे उन्हें भूख प्यास का अनुभव भी नहीं हो रहा था | गोलाम मोहम्मद को दूर से आता हुआ देख बाबा की आँखों में चमक आ गई | वे उठ खड़े हुए और लम्बी साँस छोड़ते हुए बोले, ‘जाक, लोक’टा आशछे | एबार ओ किछु एकटा व्यवस्था कोरबे |’ 

‘आमादेर डिंगी’टा कोई ?’ 

‘आजकेर दिन’टा आमार बासा’ते काटान | आपनादेर आज राइत्तिरे’ई पार कोइरा दिमू |’

गोलाम मोहम्मद उन्हें तफसील से समझाता रहा कि डिंगी के लिए भारी छीना-झपटी चल रही है | एक माझी उन्हें आज की रात ही पार करा देगा | तब तक वे उसके घर पर आराम कर सकते हैं | 

गोलाम मोहम्मद का घर साधारण सा एक कच्चा मकान था | साग-भात का इंतजाम गोलाम मोहम्मद की बीवी ने कर दिया | भूख से बेहाल यह चार जन का यह परिवार उस दिन मोसलमान के घर शरणार्थी था | रात जब थोड़ी  गहराने लगी तब एकबार फिर वे घाट पर आये | गोलाम मोहम्मद आगे आगे चल रहा था | एक डिंगी घाट पर लगी थी जिसमें कुछ परिवार पहले से ही अपनी गठरियाँ और अन्य सामान लेकर बैठे हुए थे | गोलाम मोहम्मद ने उनसे डिंगी में बैठ जाने को कहा | उसने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि कुछ देर बाद एक दूसरी डिंगी में वह भी उस पार आ जायेगा और उनसे मिलेगा | रूपए-पैसे वह पहले ही ले चुका था | उसके कहे पर विश्वास करने के अलावा इन लोगों के पास कोई उपाय भी नहीं था | वे उसपार उतरने के बाद घंटों गोलम मोहम्मद की प्रतीक्षा करते रहे | 

और गोलाम मोहम्मद नहीं आया | 

  【 प्रस्तुत उपन्यास अंश, बनारस से रामजी यादव के सम्पादन में "गाँव के लोग" पत्रिका के अंक: 14, मई-जून 2019 में प्रकाशित है 】


       
           (चित्र: मरिचझाँपि की यात्रा में लेखक)

 


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