Monday, April 5, 2021

बात चलाइए रसूल चाचा..

【प्रस्तुत गल्प 'मरिचझाँपि" उपन्यास का एक अंश है जो एक स्वतंत्र कहानी के रूप में प्रकाशित है - नील कमल】


अंततः सुरेन्द्रनाथ ने भी इच्छामती पार करने का मन बना लिया | सुरेन्द्रनाथ दे ढाका के एक स्कूल में अध्यापक हैं | भाषा आंदोलन के साथ उसके आरंभिक दिनों से से ही जुड़े रहे हैं | पौष संक्रांति का पर्व अभी अभी बीता है | घरों में पीठा-पुलि और पायस का स्वाद अभी लोगों की जीभ से लगा ही है | एक मित्र सेमिनार के काम से दूरवर्ती जिले से आकर ढाका में सुरेन्द्रनाथ के आवास पर ही रुके हैं | दो तल्ले का पुराना मकान है जिसमें ऊपर-नीचे मिला कर आठ कमरे और एक बड़ा सा हॉल है | पैतृक मकान विरासत में मिला है सुरेन्द्रनाथ को | व्यावसायिक परिवार है | कपड़े का कारबार रहा है | सुरेन्द्रनाथ के पिता ने आजादी से पहले ही कोलकाता में मकान ले लिया और भवानीपुर में एक बड़ी सी दुकान  लेकर वहाँ भी व्यवसाय शुरू कर दिया | बड़े भाई कोलकाता का कारोबार देखने लगे और वहीं व्यवस्थित हो गए | पिता ढाका से कोलकाता के बीच आते जाते रहते थे | कारोबार बड़ा था | लेकिन सुरेन्द्रनाथ का मन व्यवसाय में नहीं लगा | शिक्षा दीक्षा और छात्रों के बीच इन्हें ज्यादा सुख मिलता है | और ढाका के हवा पानी से उन्हें बहुत प्रेम भी है | सेमिनार का दिन नजदीक आ रहा था और तैयारियाँ ज़ोरों से चल रही थीं लेकिन शहर का माहौल लगातार खराब हो रहा है जिससे दूरवर्ती जिले से आने वाले लोगों की तरफ से दबाव भी बढ़ रहा है कि ऐसी परिस्थिति में सेमिनार को स्थगित कर देना ही बुद्धिमानी का काम होगा | अच्छा रहेगा कि सेमिनार के स्थगित होने की खबर अगले दिन के अखबार में चली जाये | वे तैयार होकर बाहर आये | 

वे पैदल ही चल रहे थे | सड़क पर भीड़ भाड़ नहीं थी | अमूमन संध्या के समय सड़क पर आने जाने वालों का स्वाभाविक दृश्य आज उपस्थित नहीं था | अभी वे दो सौ मीटर ही गए होंगे सड़क पर कि दूसरी ओर से कुछ युवक भागते हुए आते दिखाई दिये | युवकों की इस भीड़ में एक लड़का सुरेन्द्रनाथ को पहचानता था | उसने इन्हें उस तरफ जाते देख सतर्क किया |

-    उस तरफ न जाइयेगा, सर !

अब घर लौट आना ही उचित है सोचकर वे लौट चले | सड़क स्तब्ध है | 

मकान के निचले तल्ले पर “ढाकेश्वरी वस्त्रालय” का बोर्ड लगा हुआ है | दुकान पिछली कई पीढ़ियों से चल रही है और शहर की प्रतिष्ठित दुकान है | सुरेन्द्रनाथ के पिता ने ही दुकान के लिए रसूल मियां को कर्मचारी रख लिया था | बाप दादा का खड़ा किया व्यवसाय है | आमदनी भी कम नहीं है | लौटते हुए एकबार ठिठक कर रुके और कुछ सोचते हुए दुकान के कर्मचारी रसूल चाचा को निर्देश देते हुआ कहा कि तुमलोग दुकान बंद कर दो और घर चले जाओ, परिस्थिति ठीक नहीं लग रही है | साथ ही हिदायत भी दी कि जाते हुए दुकान की चाबी ऊपर देते जायें | रसूल चाचा ईमान के पक्के और उसूल पर जान कुर्बान करने वाले नेक इंसान हैं और पुराने वफ़ादार हैं | 

सेमिनार होता हुआ दिख नहीं रहा था | प्रतिनिधियों तक खबर पहुंचाने का कोई और उपाय अब सोचना होगा | कल इसपर विचार किया जायेगा ऐसा सोचकर सुरेन्द्रनाथ मित्र को बैठकखाने में ले गये | पत्नी रान्नाघर अर्थात रसोई में व्यस्त है | बैठकखाना में दीवार पर एक ऑयल पेंटिंग टंगी हुई है | पेंटिंग एक सुंदर काठ के फ्रेम में बँधी है जिसे सुनहरे रंग से पॉलिश किया गया है | यह एक ग्रामीण स्त्री का पोर्ट्रेट है | आँखें बड़ी-बड़ी और आकर्षक हैं | केश घने काले और लम्बे लेकिन बिखरे हुए | ऐसे केश वाली स्त्री को एलोकेशी कहते हैं | स्त्री के माथे पर एक लाल बिंदी है | शरीर पर एक साड़ी लिपटी हुई है जिसके पाड़ यानि के किनारे हरे रंग के हैं | पोर्ट्रेट में स्त्री के मुख पर एक अद्भुत पीड़ा है | बैकग्राउंड में धान के खेत हैं और मेघ से भरा आकाश | बड़ी काव्यात्मक पेंटिंग है यह | पोर्ट्रेट के निचले कोने में दाहिने तरफ अमलेंदु नाम अंकित है | अमलेंदु अर्थात सुरेन्द्रनाथ दे का एकमात्र पुत्र संतान | 

अमलेंदु उसी स्कूल मे पढ़ता है जिसमें सुरेन्द्रनाथ अध्यापक हैं | सुरेन्द्रनाथ की स्त्री गृहणी हैं | तेरह साल की आयु में ही विवाह हो गया था | फरीदपुर के एक सम्पन्न परिवार से हैं | सुरेन्द्रनाथ की किसी से शत्रुता नहीं है | पाड़ा प्रतिवेशी सम्मान करते | अमलेंदु को घर में सब प्यार से सोना बुलाते हैं | अमलेंदु का जन्म जिस दिन हुआ वह दिन भाषा आंदोलन का एक ऐतिहासिक दिन था | उन दिनों अन्य भाषा प्रेमी युवकों की ही  तरह उनकी जुबान पर एक ही गीत होता, “अमार सोनार बांग्ला आमि तोमाय भालोबाशि” | इसी गीत की प्रेरणा से सुरेन्द्रनाथ ने पुत्र को पुकार का नाम दिया, सोना | सुरेन्द्रनाथ ढाका विश्वविद्यालय से मास्टर की डिग्री लेकर जब निकले तब भाषा आंदोलन अपने शबाब पर था | उसी साल चुनावों में मुस्लिम लीग को भारी शिकस्त मिली और यूनाइटेड फ्रंट की विजय हुई | इसके बाद ही बांग्ला भाषा को पूर्वी बंगाल में राज्य की भाषा की मर्यादा हासिल हुई | अगले साल सुरेन्द्रनाथ को स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई | अमलेंदु के हर जन्मदिन पर पूरा परिवार भाषा दिवस का भी पालन करता है | 

यह 1964 का जनवरी महीना है | अमलेंदु अपने कमरे में ड्राइंग खाता में चित्र बनाने बैठा है | अचानक नीचे से कोई सोना सोना कह कर आवाज दे रहा है | अमलेंदु चित्र बनाने में इतना एकाग्रचित्त है कि आवाज को अनसुना कर देता है | लेकिन लगातार सोना सोना की पुकार से उसका ध्यानभंग हो गया और वह दो तल्ले की खिड़की से ही नीचे गेट की तरफ झाँकने लगा | नीचे कुछ लोग दल बना कर खड़े हैं | वह ध्यान से देखता है कि ये कौन लोग हैं | अरे, यह तो रूपा है, इसके साथ ये कौन लोग हैं और नीचे क्या कर रहे हैं | रूपा बाजर के पीछे वाली बस्ती में रहती है | अमलेंदु दौड़कर नीचे जाता है | 

-    क्या रे रूपा, क्या हुआ !

-    तुम लोगों ने क्या कुछ सुना नहीं ? कर्फ़्यू जारी हो गया है | हमें भय लगता है | हम तुम्हारे घर में ही रुक जायें ? कर्फ़्यू खत्म होते ही चले जायेंगे | रूपा ने अभी बात समाप्त भी नहीं की थी कि उसका पिता भी आ चुका था | ऐसा पहले भी कई बार हुआ है | जब भी कोई अशांति,  दंगा या मारपीट होती है वे अमलेंदु के घर में शरण लेते हैं | रूपा के पिता की बाजार में सब्जी की दुकान है | 

-    आ जाओ | कहकर अमलेंदु ने गेट पूरा खोल दिया | 

वे भीतर आ गए तो फिर से गेट बंद करके वह पिता को सूचना देने के लिए बैठकखाना में गया | सुरेन्द्रनाथ मित्र के साथ किसी विषय पर गंभीर चर्चा में व्यस्त थे ऐसा उनके स्वर के चढ़ाव और हाथों के संचालन से साफ दिख रहा था | सोना से कर्फ़्यू की खबर सुनते ही घड़ी की तरफ देखने लगे | रेडियो पर समाचार का समय था | बुलेटिन अभी शुरू ही हुई थी | ढाका सहित पूर्वी बंगाल के कई इलाकों में कर्फ़्यू आज रात से ही लागू कर दिया गया है | पुलिस को सतर्क कर दिया गया है | सर्वसाधारण को बाहर न निकलने की वार्ता के साथ बुलेटिन समाप्त हुई तो सुरेन्द्रनाथ के माथे पर सिलवटें उभर आईं | 

पाड़ा के कमजोर परिवार किसी भी मुसीबत की घड़ी में सुरेन्द्रनाथ के घर में शरण के लिए आते  थे | सबके लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते थे | कुछ ही घंटों में कई परिवार उनके यहाँ जमा होने लगे | नीचे तल्ले वाले हॉल को खोल दिया गया | ये लोग भूखे भी होंगे, सोचकर भंडार से चावल निकाल कर ले आये | नीचे ही सबके लिए भोजन का इंतजाम किया गया | 

सड़क पर थोड़ी देर पहले पुलिस की गाड़ी गश्त देती हुई निकली है | अचानक एक भीड़ अल्ला हु अकबर का नारा लगाती हुई इधर से गुजरती है | 

मास्टर मोशाय! ओ मास्टर मोशाय !  थोड़ी देर बाद नीचे से कोई गंभीर आवाज सुनाई देती है | सुरेन्द्रनाथ ने गेट पर आकर देखा तो शफीक और इस्लाम खड़े थे | 

ये दोनों ही मस्जिद वाली गली में रहते हैं और कपड़े  के कारबार से जुड़े होने के नाते सुरेन्द्रनाथ को पहले से जानते हैं | दोनों ने सिर पर टोपी पहन ररखी थी | ये बहुत जल्दी में हैं | इस्लाम ने एक पल भी न बरबाद करते हुए धीरे से कुछ कान में बताया | उनके कहने का तात्पर्य यह था कि यह इलाका जितनी जल्दी हो सके छोड़कर निकल जायें | सरकार की तरफ से एक लॉरी जल्दी ही उन्हें निकालने के लिए आयेगी, तैयार रहें | 

आधी रात के समय सरकार की तरफ से एक लॉरी आई | सुरेन्द्रनाथ ने खड़े होकर हर एक को गाड़ी में चढ़ाया और अंत में अपने मित्रों के साथ सपरिवार खुद भी चढ़े | मकान को ताला लगा दिया गया था | 

लॉरी ऊपर से खुली है | सड़कों पर उपद्रवियों की नारेबाजी जारी है | चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही हैं | लॉरी कोर्ट की तरफ मुड़ गई | कोर्ट कम्पाउन्ड में शहर से अल्पसंख्यक परिवारों को निकाल कर इसी तरह लॉरियों में लाया जाता रहा | वह जनवरी की मनहूस सर्द रात थी | अगले दिन कोर्ट कम्पाउन्ड से सारे लोगों को ढाका शहर के ही एक कॉलेज में ले जाया गया | यह कॉलेज अब एक रिलीफ़ कैम्प है | 

एक वृद्ध सामने पेड़ के नीचे बैठे हैं | उम्र सत्तर के आसपास होगी | खद्दर की धोती और कुर्ता पहने हुए हैं | कंधे से एक झोला लटक रहा है | ज़ोर ज़ोर से सांसें ले रहे हैं और रह रह कर सीने को सहला रहे हैं | कभी गमछा से माथे का पसीना पोंछते हैं | सुरेन्द्रनाथ वृद्ध को काफी देर से देख रहे हैं | कुछ सोचकर वे वृद्ध के निकट जाते हैं |

-    नमस्कार, क्या आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ ?

-    कौन हो तुम बाबा, मैंने पहचाना नहीं |

-    सुरेन्द्रनाथ दे | स्कूल में अध्यापक हूँ | बल्कि कहना चाहिए कि अध्यापक था | अभी तो प्राण बचाने के लिए यहाँ शिविर में शरणापन्न एक सामान्य नागरिक | 

-    बैठो बाबा, थोड़ा जल कहीं से ला सकते हो ? तृष्णा से गला सूख रहा है |

-    अवश्य | सुरेन्द्रनाथ थोड़ी देर बाद एक पात्र में जल लेकर लौटे | वृद्ध ने पानी पिया | बचा हुआ जल सुरेन्द्रनाथ ने वृद्ध के माथे पर छींटा और गमछा भिंगो कर उसका हाथ पोंछने लगे | थोड़ी देर में वृद्ध को आराम आ गया | 

-    क्या आपका परिचय जान सकता हूँ ? संकोचपूर्वक वृद्ध की आँखों में देखते हुए सुरेन्द्रनाथ ने प्रश्न किया |

-    जोगेन चक्रवर्ती नाम है |  सप्ताह भर से इष्ट मित्र और आत्मीय स्वजन के यहाँ व्यक्तिग्त प्रयोजन से आया था | कल किसी तरह प्राण बचा कर यहाँ पहुँचा | 

-    अचानक इस तरह दंगे भड़क उठेंगे यह किसी ने सोचा नहीं था | 

-    दंगा ! आप इसे दंगा कहते हैं ? वृद्ध की आँखों में वितृष्णा उभर आई | उसने बात जारी रखी | दंगे में दो दल या दो संप्रदाय आपस में लड़ते हैं | एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं | दोनों तरफ के लोग घायल होते हैं, मारे जाते हैं | यह कैसा दंगा है जिसमें एक दल मार रहा है और दूसरा प्राण बचा कर भाग रहा है | जो पीड़ित हैं, जो मारे जा रहे हैं, कोई उनको बताएगा उनका अपराध आखिर क्या है ? किसी का क्या अहित किया है इन लोगों ने जो इनको इस प्रकार मारा जा रहा है | ये लोग तो राजनीति नहीं करते, पड़ोसी से झगड़ा तक नहीं करते, इसी देश के नागरिक हैं, इस देश के सुख दुख के साथ जुड़े हुए लोग हैं, देश की उन्नति में इनका भी हाथ है, ये भी सरकार को ‘खाजना’(टैक्स)  देते हैं, तो आखिर इनको क्यों मारा जा रहा है ? क्यों मेरी आँखों के सामने मेरे बच्चों को, बहन-बेटियों को मारा जा रहा है ? क्यों हमारे घर की स्त्रियों को अपमानित किया जाएगा , इसका कोई उत्तर है किसी के पास ? वृद्ध अचानक उत्तेजना में आकर धाराप्रवाह बोले जा रहे थे | 

-    आपका शरीर ठीक नहीं है | आप शांत हो जाइये | सुरेन्द्रनाथ ने वृद्ध को शांत करने ले लिए उसके सामने हाथ जोड़ लिए | वृद्ध अब हाँफ रहा था | 

-    सत्तर साल का जीवन जी चुका हूँ, बाबा | मृत्यु का भय नहीं मुझे | शरीर अब मन का साथ नहीं दे रहा | एक जमाने में जब अनुशीलन समिति का सदस्य हुआ करता था तब इस शरीर पर इतना भरोसा हुआ करता था कि अकेला भी सौ-पचास लोगों से मुक़ाबला कर सकता हूँ | आज लेकिन वह दिन नहीं है | आज आक्रमण करने वाले को कैसे रोकूँ यह मेरी समझ में नहीं आता | वृद्ध अपने अतीत में डूबता उतराता हुआ दिख रहा है | 

रात भर अलग अलग जगहों से लोगों को ले आने का सिलसिला जारी रहा | सब के सब असहाय | 

-    जानते हो बाबा, भारत की स्वाधीनता के लिए बीस साल से भी ज्यादा समय जेल में बिताया है मैंने | कई साल इधर उधर भाग कर छुपकर असहनीय कष्ट में जीवन बिताया है | स्वाधीनता आ गई है | अब यही स्वाधीनता का पुरस्कार है मेरा कि यहाँ आधीरात के समय असहाय इस कॉलेज के रिलीफ़ कैम्प में पड़ा हूँ | वृद्ध इस समय भीषण अपमानित और असहाय महसूस कर रहा था | उसके चेहरे पर तनाव था और आँखें ऐसी कि जैसे अभी छलक पड़ेंगी | 

-    हम सब इस दुख में साथ हैं | धैर्य रखिये | सुरेन्द्रनाथ ने वृद्ध के कंधे पर हाथ रखते हुए सांत्वना के दो शब्द कहे | इसके अतिरिक्त उन्हें अभी कुछ सूझ भी नहीं रहा है | 

यह कॉलेज ढाका के पुराने कॉलेजों में से एक है | प्रिंसिपल मिजानुर रहमान सुरेन्द्रनाथ के पूर्व परिचित हैं | वे दयालु स्वभाव के व्यक्ति हैं | कॉलेज प्रबंधन की तरफ से उनसे जितना बन पड़ा उतनी व्यवस्था में कोई कसर नहीं बाकी रखा | कॉलेज के सारे कमरे खोल दिये गए हैं | पीने का पानी भी प्रयोजन के अनुसार उपलब्ध कराया है | लेकिन इतने लोग जो भूखे प्यासे जाने कहाँ कहाँ से यहाँ ले आए गए थे उनको क्या खिलाया जाएगा अगले दिन यह चिंता का विषय तो है ही | कॉलेज के पास ऐसा कोई फंड तो होता नहीं | प्रशासन से अभी तक कोई ऐसी बात अभी हुई नहीं है | शायद कल प्रशासन के लोग कुछ बतायें कि कैसे क्या करना है | 

रिलीफ़ कैम्प के लोगों के माध्यम से डराने वाली खबरें आ रही हैं | 

प्रिंसिपल मिजानुर रहमान अगले दिन सुबह से ही प्रशासन से लगातार संपर्क बनाने की कोशिश में हैं | प्रशासन से बताया जा रहा है कि राहत सामग्री पहुँचाई जा रही है | लेकिन दोपहर तक कहीं से कोई राहत का समान नहीं आ सका है | रहमान साहब कहने के लिए तो मुसलमान हैं लेकिन नमाज़ी नहीं हैं | इंसानियत से ऊपर कोई मजहब नहीं इसी भावना पर चलने वाले नेक इंसान हैं | उन्हें पता चला कि जिला प्रशासन की तरफ से कुली राहत के लिए अनाज और वस्त्र के साथ भेजे गए हैं | लेकिन उनके भरोसे कब तक बैठा जा सकता था | निकट के परिवारों से संपर्क किया | कुछ समाजसेवी संस्थाओं को राहत के लिए सामने आने के लिए प्रेरित करते रहे | मुहल्ले के कुछ शरीफ इंसान मदद के लिए आगे भी आए | शिविर में हजारों की संख्या मेन उपस्थित लोगों के लिए खिचड़ी का इतजाम तमाम दिक्कतों के बाद कराया जा सका | 

प्रिंसिपल मिजानुर रहमान साहब का ऑफिस घर | सुरेन्द्रनाथ दे कुर्सी पर बैठे हैं | सुरेन्द्रनाथ के लिए पत्नी और बच्चे के साथ रहने लायक एक अलग कमरे की व्यवस्था रहमान साहब ने अपने कमरे के बगल में ही कर दी है | अगले कुछ दिन तक तो यहाँ रहना ही है | आगे परिस्थिति के अनुसार जैसा वे ठीक समझें | घड़ी कि टिकटिक की आवाज़ साफ सुनाई देती है | घड़ी के मुताबिक तीन बज रहे हैं | एक मौन पसरा है | मौन कि आवाज़ ही इस समय सबसे प्रकट है | रहमान साहब ने चुप्पी को तोड़ा |

-    क्या हो गया है दुनिया को ! क्या इसी आज़ादी का सपना देखा था लोगों ने ?

-    आज़ादी की कीमत वसूली अंग्रेज़ हुकूमत ने | मजहब को मजहब से लड़ाया | 

-    सच तो यह है कि मजहबों के बीच की दीवार और भी पहले पड़ गई थी मुल्क में | क्या आपको नहीं लगता ?

-    और भी पहले, मतलब ? 

-    जब आधुनिक ज्ञान विज्ञान के साथ बंगाल का रेनेशांस आया देश में तब क्या हुआ याद कीजिए | 

-    अंग्रेजी शिक्षा आई, वैज्ञानिक चेतना आई | 

-    पहली बात आपने ठीक कही | लेकिन दूसरी बात आपकी उतनी ठीक नहीं दिखाई देती | 

-    वह कैसे ? समाज सुधार के कार्यक्रमों के पीछे वैज्ञानिक चेतना नहीं रही ?

-    वह कैसी चेतना थी ? उसका नेतृत्व कौन लोग कर रहे थे ? 

-    मूलतः कोलकाता के समाज सुधारक |

-    यही तो ! ठीक कहा आपने  और स्पष्ट कहिए तो कोलकाता के उच्चवित्त एलिट क्लास लोग थे ये | और भी स्पष्ट कहा जाए तो एलिट हिन्दू | 

-    इस तरह से तो सोचा नहीं था मैंने | 

-    अब भी सोचने में कोई हर्ज नहीं है | देखा जाए तो बंगाल रेनेशांस का नेतृत्व हिन्दू एलिट श्रेणी के हाथ में ही रहा | और जो सबसे गड़बड़ बात हुई वो यह कि अधिनिकता और ज्ञान विज्ञान के साथ सनातन हिन्दू धर्म की एक ‘जगाखिचुरी’ तैयार हुई | जगाखिचुरी समझते हैं न  ? रहमान साहब के चेहरे पर मुस्कान थी | देखिए, इस रेनेशांस के भीतर ही सांप्रदायिकता और श्रेणी भेद के बीज रह गए थे | यह पूरा दौर विज्ञान और आधुनिकता के साथ अपने तमाम धार्मिक पूर्वग्रह को लेकर चल रहा था | 

-    आपकी बात गंभीर है | इसपर विचार करना चाहिए | सुरेन्द्रनाथ ने सिर हिलाकर सहमति जताई |

-    रवीन्द्रनाथ का संकेत याद कीजिए कि शहर तो आधुनिक हो गए लेकिन गाँव मध्य युग में ही रह गए | तो यह कैसी आधुनिकता रही जो शहर केंद्रिक होकर रह गई | बड़े लोगों को ही लाभ देती रही | गरीब खेतिहर किसान मजदूर को क्या मिला ? क्या वंदे मातरम मजहबी नारा नहीं है ? भवानी पूजा, शिवाजी उत्सव क्या मुसलमान को साथ लेकर चल सकते थे ? आर्य समाज, शुद्धि आन्दोलन, गो रक्षा समिति क्या धार्मिक नहीं थे ? मुसलमान को इन चीजों ने अलग थलग कर दिया | अब अलग थलग होकर आदमी कहीं तो गिरता ही है | वे मुल्ला मौलवी की गोद में जाकर गिरे | देखिए, आधुनिक शिक्षा और धर्मीय चेतना ये दोनों साथ नहीं चल सकते | इसका नतीजा जो होना था वही हुआ | 

-    इसके लिए कांग्रेस और लीग दोनों के लीडर दोषी हैं |

-    बेशक हैं | दोनों दोषी हैं लेकिन कांग्रेस ज्यादा दोषी है | चित्तरंजन दास असमय न चले गए होते तो शायद चित्र कुछ और होता | समन्वय से अधिक विभेद करने वाली राजनीति की हमारे लीडरान ने | 

सुरेन्द्रनाथ ने अब तक नहीं सोचा था इस मामले पर | रहमान साहब की बात में तो कोई अस्पष्टता नहीं है | अब यह आग जाने कैसे थमेगी | कोई आर पार नहीं है इसका | कोलकाता में दंगा होता है तो उसका बदला नोआखाली में लिया जाता है | खुलना में दंगे करवाये जाते हैं | रेडियो जब बताता है कि कोलकाता में दस मरे तो खुलना-नोआखाली में बीस को मारकर हिसाब बराबर किया जाता है | कहीं तो थमना ही होगा इस सिलसिले को | 

इस बीच अखबारों में लगातार खबरें आ रही हैं कि माइग्रेशन लेकर भारत जाने वालों की लाइन लग गई है | हिन्दू जो यहाँ संख्यालघु है वह अपना सबकुछ यहीं छोड़ कर भी यहाँ से चला जाना चाहता है | वह जानता है कि उसका कोई भविष्य नहीं है भारत में | उसके सामने भविष्य के नाम पर गहरा अंधकार और अनिश्चितता है | फिर भी रोज माइग्रेशन के लिए हजारों लोग निकल रहे हैं | क्या एकदिन उनको भी सबकुछ यहीं छोड़ कर इस देश का त्याग करना होगा | अचानक सुरेन्द्रनाथ को पत्नी और बच्चे की याद आती है | रहमान साहब से अनुमति लेकर वे अपने कमरे में आते हैं | 

अमलेंदु कमरे में नहीं है | पत्नी फर्श पर एक चटाई पर विश्राम करने के लिए लेटी हुई हैं | 

उधर उस गाछ के नीचे अमलेंदु की बाँह पकड़े रूपा उसे न जाने क्या दिखाने के लिए खींचे ले जा रही है | सुरेन्द्रनाथ अनमना होकर उनका कौतुक देखने लगते हैं | रूपा एक फूल की तरफ संकेत कर रही है | उसे वह फूल चाहिए | उसे विश्वास है कि सोना उसके लिए यह फूल तोड़ कर ला सकता है | इस गोधूलि वेला में इस गाछ की तरफ कोई नहीं है इन दोनों को छोड़ कर | सोना ने लक्ष्य किया कि रूपा के गालों पर एक अजीब सी लाली आ गई है, उसकी आँखें झुकी हैं और होठों में कंपन है | वह सकुचाते हुए फूलों के एक खास गुच्छे को दिखा कर अस्फुट सा कुछ कहती है |

-    सोना, क्या तुम वह फूल तोड़ कर नहीं ल सकते मेरे लिए ? ला दो न सोना | 

सोना के लिए यह मनुहार नया है | रूपा के सम्पूर्ण देह में इस समय एक अद्भुत थरथराहट है | यह क्या है ? उसे क्या हो गया है | सोना को कुछ समझ में नहीं आ रहा | लेकिन इतना उसे अवश्य पता है कि फूल न मिले तो शायद वह रो ही पड़े | 

सोना फुर्ती के साथ गाछ पर चढ़ गया | फूल के गुच्छे बहुत ऊँचाई पर नहीं थे | उसने आसानी से उन्हें तोड़ लिया और अपनी कमीज में खोंस कर डाल से उतरने लगा | 

सुरेन्द्रनाथ को जैसे अचानक कोई बात याद आई | वे रहमान साहब के कमरे की तरफ मुड़ गये | सोना फूल लेकर आगे बढ़ा | चलो, कम से कम अब यह लड़की रोएगी तो नहीं | उसके मन का काम तो हो गया | सोना के मन में एक बड़ा काम कर डालने का संतोष था | वह किसी विजेता की तरह चल रहा था | उसने फूलों का गुच्छा रूपा के हाथ में रख दिया | रूपा के गाल अब भी उसी तरह लाल हैं | उसकी आँखें जमीन की तरफ हैं | एक दबी सी मुस्कान उसके होठों पर खेलने लगी है | सोना को यह सब बोका बोका लग रहा है | यह लड़की ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है | कोई पीछे से सोना को पुकार रहा है | आवाज तो माँ की ही है | उसे लौटना होगा | 

-    चलता हूँ रे, रूपा | इतना कह कर सोना मुड़ जाता है | रूपा मुँह फेर कर खड़ी है | कभी फूलों के देखती है तो कभी सोना को | 

सुरेन्द्रनाथ सपरिवार रहमान साहब के रिहायशी मकान में आ गये हैं | रहमान साहब के यहाँ उस वृद्ध को देखकर सुरेन्द्रनाथ को थोड़ा आश्चर्य हुआ | ये वही वृद्ध हैं जिन्होंने अपना नाम जोगेन चक्रवर्ती बताया था और उस रात कॉलेज में जिनकी मदद सुरेन्द्रनाथ ने की थी | वृद्ध ने सुरेन्द्रनाथ को पहली नजर में पहचान लिया | शाम को रहमान साहब कॉलेज का इंतजाम देखकर लौटे तो फुर्सत के लम्हे में बातचीत का सिलसिला चल निकला | 

-    सड़कों पर मिलिटरी फ्लैग मार्च कर रही है | बहुत तनाव है बाहर | रहमान साहब बहुत चिंतित दिखाई देते थे | घर के मेहमानों की सुरक्षा की चिंता ही इस समय सबसे बड़ी चिंता है |

-    यह फ्लैग मार्च नाटक नहीं तो और क्या है ? जोगेन चक्रवर्ती उत्तेजित हो गए मिलिटरी की चर्चा से | मिलिटरी से जोगेन बाबू को बहुत चिढ़ है | उनका मानना तो यह है कि मिलिटरी की आड़ में शासक की तरफ से एकतरफा अत्याचार करना बहुत आसान हो जाता है | नागरिक प्रतिरोध के दमन के लिए किया गया प्रहसन है यह मिलिटरी फ्लैग मार्च |

-    मिलिटरी के बिना क्या इस भयावह स्थिति पर काबू पाना संभव है ? अभी जैसे हालत हैं, ऐसा लगता तो नहीं है | उन्माद को कैसे काबू में करेंगे ? सुरेन्द्रनाथ ने जोगेन बाबू की स्थापना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुआ कहा |

-    देखिए, ऊपर ऊपर सांप्रदायिक दिखने वाला यह उन्माद असल में सम्पूर्ण रूप से धर्म और संप्रदाय का मामला नहीं है | आप कुछ लोगों को नहीं पसंद करते इसलिए आप उन्हें खत्म कर देना चाहते हैं | यह एक सामाजिक समस्या है | और उससे भी बढ़कर एक सांस्कृतिक समस्या है | इसका समाधान किसी मिलिटरी से संभव नहीं है |

-    सांस्कृतिक पक्ष अवश्य है इस समस्या का | लेकिन जब आग लगी हो तब तत्काल पानी डालना ही उपाय हो सकता है |  इस परिस्थिति में कुआँ खोदने की बात सोचना भावुकता है | रहमान साहब ने हस्तक्षेप करते हुए कहा | नौकर इस बीच सबके लिए चाय ले आया | रहमान साहब ने अपने नौकर को अपने यहाँ रहने के लिए एक कमरा दे दिया है | वह सपरिवार रहमान साहब के मकान में ही रहता है | रहमान साहब ने खुद उठकर अतिथियों को चाय का प्याला पकड़ाया और पूर्ववत अपनी जगह आकर बैठ गए | 

-    देखिए, मैं फिर कहूँगा कि यह मिलिटरी का काम नहीं है | आग को कंबल से ढक देने से आग बुझ नहीं जाती है | थोड़ी देर बाद ही कंबल भी आग पकड़ लेती है | मिलिटरी के ज़ोर से सांप्रदायिकता को डील नहीं किया जा सकता | यह काम जनगण के बीच काम करने वाले, जन भावनाओं को पहचानने वाले लीडरों का है | वे लीडर या तो कहीं छुपे हुए हैं या फिर जेल में बंद हैं | सांप्रदायिक उन्माद का चेहरा भीड़ का चेहरा है | भीड़ को नियंत्रित कौन करेगा | जनता का लीडर या कि मिलिटरी | जोगेन चक्रवर्ती अपनी स्थापना पर अब भी अडिग थे | 

-    उचित कहते हैं आप, जोगेन बाबू | अच्छा आपकी नई किताब का क्या हुआ ? रहमान साहब को यह बातचीत बहुत प्रीतिकर नहीं लग रही है | वे छह रहे हैं कि इसे दूसरी तरफ मोड़ा जाए | जोगेन चक्रवर्ती एक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं | साहित्य और संस्कृति जगत का एक जाना पहचाना नाम | उपन्यासकर के रूप में जोगेन बाबू की ख्याति है | 

-    प्रूफ का काम देखने ही आया था | कल ही पहुंचा हूँ ढाका शहर में और ... देख ही रहे हैं आप | प्रेस बंद हो गया | और घर लौटना भी संभव नहीं दिखता | 

जोगेन चक्रवर्ती नाटोर जिला के एक छोटे से गाँव में रहते हैं | ढाका के एक प्रेस में जोगेन बाबू का नया उपन्यास प्रकाशन के लिए आया है | प्रेस मालिक से कल सुबह ही बातचीत हुई है | पाण्डुलिपि का पहला प्रूफ तैयार है | अब यहाँ दंगे में फँस गए तो सीधे रहमान साहब को खोजते हुए जैसे तैसे जान बचाते उनके कॉलेज तक आने में में सफल रहे | और इस तरह आज इस बहस का हिस्सा हैं | सुरेन्द्रनाथ दे जोगेन बाबू की तार्किकता और विश्लेषण शक्ति से बहुत प्रभावित हैं | संयोग से दोनों इस समय रहमान साहब के मेहमान हैं | सुरेन्द्रनाथ सोचते हैं कि परिस्थिति स्वाभाविक हो जाए तो जोगेन बाबू के सारे उपन्यास मँगवा कर पढ़ेंगे | जोगेन चक्रवर्ती नाटे कद के साँवले आदमी हैं | चाप दाढ़ी रखते हैं | सिर के बाल अब ज़्यादातर झड़ चुके हैं | आँखें बड़ी बड़ी और पानीदार हैं | बहस में जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं और उत्तेजना में उनकी आँखें और बड़ी हो जाती हैं | एकदम गोल और फैली हुई | 

उस रात रहमान साहब के घर पर पत्थरबाजी हुई | बाहर का गेट मजबूत न होता तो वे तोड़कर भीतर आ गए होते | अगर काफिरों को घर में पनाह दी तो आग लगा देंगे ऐसी धमकी देकर गए हैं | रहमान साहब अब भी भरोसा दिला रहे हैं कि सब ठीक हो जाएगा कुछ दिन बाद | वे प्रशासन से बात करेंगे | लेकिन सुरेन्द्रनाथ ने तय कर लिया कि अपने बचाव के लिए रहमान साहब को और मुसीबत में डालना ठीक नहीं होगा | 

रेडियो पर शहर में आगजनी और लूटपाट की खबरें आ रही हैं | सुरेन्द्रनाथ की दुकान में लाखों का माल है | कीमती साड़ियाँ और दूसरे कपड़े | भगवान न करे वैसी कोई बात हो | लेकिन आतंक मन में जगह बनाने लगा है धीरे धीरे | सुरेन्द्रनाथ सपरिवार कॉलेज के अस्थायी रिलीफ़ कैम्प में आ गए हैं | रहमान साहब को यह अच्छा तो नहीं लगा रहा है लेकिन परिस्थिति को देखकर कुछ करते नहीं बनता | चलो ठीक है उनकी सुरक्षा के लिहाज से कॉलेज ही बेहतर जगह है | पुलिस है कम से कम | कोई असामाजिक तत्व यहाँ हमला तो नहीं करेगा | कौन जाने स्थिति सामान्य होने में कितने दिन लगने वाले हैं | नारायणगंज चटकल और ढाकेश्वरी कॉटन मिल की घटनाओं के बाद माइग्रेशन के लिए भीड़ बढ़ती जा रही है | तरह तरह की अफवाहें फैलाई जा रही हैं | 

रसूल चाचा मिलने आए हैं | सुरेन्द्रनाथ का परिवार रहमान साहब के कॉलेज वाले उसी कमरे में फिर से सोने बैठने लगा  है | अपना घर मकान है इसी शहर में और यहाँ पड़े हुए हैं रिलीफ़ कैम्प के अंदर क्योंकि शहर का माहौल खराब है |

-    शहर का माहौल वाकई बहुत खराब है मालिक | रसूल चाचा ने बताया |

-    अब इससे ज्यादा क्या खराब होगा चाचा | जान बचाना मुश्किल हो चला है | बाहर निकलेंगे तो कौन जाने कत्ल भी हो सकते हैं ये सब लोग | सुरेन्द्रनाथ रसूल चाचा को देखकर भावुक हो उठे |

-    मेरे रहते आप लोगों को कुछ नहीं होगा मालिक | मेरे घर चलिए आपलोग | रसूल के जिंदा रहते कोई हाथ लगा के तो देखे | 

-    नहीं चाचा | हम आपको खतरे में नहीं डाल सकते | मैंने बहुत विचार किया है | हमें कोलकाता चले जाना चाहिए | बात चलाइये मकान और दुकान का वाजिब दाम मिल जाए तो ... आगे कुछ न बोल सके सुरेन्द्र्नाथ | गला भर्रा गया | आँखें सजल हो उठीं | पानी से भरा जग उठाकर वे उठकर मुँह धोने चले गए | लौटे तो अधिक दृढ़ दिख रहे थे | 

-    नहीं मालिक, जल्दबाज़ी न कीजिए | सब ठीक हो जाएगा | रसूल चाचा ने हौसला देने की कोशिश की जिसका असर होता दिखाई नहीं देता था |

-    सोच लिया | आप बात चलाइये, रसूल चाचा | 

[हिंदी अकादमी, दिल्ली की मासिक पत्रिका, "इंद्रप्रस्थ भारती" के मार्च 2021 अंक में प्रकाशित]

- नील कमल (मोबाइल: 9433123379)


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