Tuesday, April 6, 2021

मरिचझाँपि (उपन्यास अंश)

वैधानिक : मरिचझाँपि सुंदरबन क्षेत्र का एक द्वीप है जहाँ अल्पकाल के लिए शरणार्थी आ बसे थे | यह उपन्यास तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से भारत आने वाले शरणार्थियों के जीवन-संघर्षों की काल्पनिक और गल्प प्रस्तुति है | कथा में वर्णित स्थान-काल-पात्र और घटनाएँ सभी काल्पनिक हैं तथा किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से इनका कोई संबंध नहीं है | किसी भी तरह के सादृश्य को लेखक की कल्पना और महज संयोग माना जाए |    

- नील कमल 


तेरह मई की उस रात को याद करते हुए निखिल के चेहरे पर एक दहशत की याद जैसे ताज़ा हो उठती है | उसके चेहरे का रंग बदल सा गया | आँखें मानो स्मृति के किसी महासमुद्र में एक कुशल गोताखोर की तरह छलाँग लगाने को तैयार थीं | निखिल उस रात की स्मृतियों में डूब-उतरा रहा था | उन दिनों वह बीस-बाईस साल का नौजवान था | गौर वर्ण शरीर वाले सुदर्शन युवक निखिल का व्यक्तित्व किसी ग्रीक देवता की तरह आकर्षक था | कुदरत ने उसे वक़्त लेकर तराशा था | लम्बे बाल कंधे तक आते थे | कनपटी से नीचे तक आधा इंच चौड़ा खत | नाक नक्श जवानी के दिनों के सुनील दत्त के जैसे | कुल मिला कर उसके बाँकपन और उसकी अदा पर कई पन्ने खर्च किए जा सकते थे | निखिल ने अपने सपनों में रंग भरने के लिए एक बढ़िया कैमरा ले लिया था | उसकी खींची हुई तस्वीरें कलकत्ता के बड़े अंग्रेजी अख़बारों में छपने लगी थीं | नक्सलबाड़ी से लौटकर जो तस्वीरें उसने स्टेट्समैन को दी थीं उससे उसकी पहचान एक फ़ोटोजर्नलिस्ट के रूप में मुकम्मल हो रही थी | अपने एडिटर का वह लाडला बनता जा रहा था | निखिल जितना कुशल पत्रकार था उतना ही पेशेवर | उसने जल्द ही अपने भीतर उथल-पुथल मचा रहे भावों पर काबू पा लिया |  


एक कथावाचक की तरह वह उस रात के बारे में बता रहा था | 

“पुलिस-सुपर ने खबर देकर मुझे सावधान कर दिया और उस दिन मैं वहाँ से निकलने में कामयाब हो गया था, अन्यथा ..” एक सिहरन सी उसके बदन में दौड़ गई थी जिसे उसने किसी को महसूस नहीं होने दिया | 

“अन्यथा क्या..” ? मैंने उस अन्यथा की डोर को थामे रखा जिससे वह उसे पकड कर उस लम्हे तक वापस लौट सके | 

“कुछ भी हो सकता था | शायद मैं जिन्दा लौट ही न पाता | नितीश मंडल और उसके साथियों ने मुझसे कहा कि वे मेरे बाहर निकलने का इंतजाम कर देंगे | एक डोंगी मँगवाई उन लोगों ने | पतली सी | वे उस डोंगी को लेकर “माछ” पकड़ने निकलते थे | एक गरीब “जेले” था उस डोंगी पर | उन लोगों ने कहा कि मैं अपने सारे कपड़े उतार दूँ | जिंदा रहने के लिए आदमी क्या नहीं करता | मैंने अपनी पतलून और कमीज उतार दी | और बनियान भी | अंडरवियर रहने दिया | तीन चार लोगों ने मेरे बदन पर नदीतट के “कादा माटी” का लेप लगा दिया | सर से पाँव तक | मेरे लिए यह दुस्सह था | मुझसे कहा गया कि मैं डोंगी में लेट जाऊँ और कोई हरकत न करूँ | यह जेले मुझे अपनी डोंगी में लेकर बाहर निकालने वाला था”, कहते कहते निखिल  की आवाज़ में एक अकल्पनीय सा कम्पन पैदा हो रहा था | 

“लेकिन कादा माटी क्यों” ? मेरी इस जिज्ञासा पर निखिल के चेहरे पर मुस्कान खेल गई |

“पुलिस के लॉन्च ‘राउंड’ दे रहे थे”, निखिल ने मेरी आँखों में झाँकते हुए बताया, “सर्च लाईट की रौशनी में अगर उनको संदेह हो जाता कि किसी ‘मानुष’ को बहार निकाला जा रहा है तो मेरे साथ साथ वह गरीब जेले भी मारा जाता | शरीर में असह्य बेचैनी थी पर मैं हिल नहीं सकता था | लाश की तरह पड़ा रहा | सिर्फ मेरा कैमरा था जो मेरे साथ लौट रहा था | वह जेले किसी देवदूत की तरह उस गहन अंधकार में डोंगी खेता हुआ मुझे लेकर अगली भोर एक अनजान द्वीप पर पहुँचा | मुझे कपड़े दिए गए | किराये के पैसे भी उन लोगों ने ही दिए | वहाँ से जैसे तैसे कलकत्ता लौटा तो सुबह का अख़बार देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए” | 

“क्या हुआ था उस रात” ? मैंने पूछा | 

निखिल का गला भर्रा आया था | उसने सिर्फ दो शब्द बोले ,”ऑपरेशन मरिचझाँपि ” | वह थोडा बेचैन हो गया | उसने एक सिगरेट जला ली | दो तीन लम्बे कश लेने के बाद उसने मेरी तरफ देखा | मैं पहले से ही उसके चेहरे को गौर से देख रहा था | 

“मैं एक फ़ोटोजर्नलिस्ट हूँ | मेरा काम तस्वीरें लेना है | कहानियाँ सुनाना मेरा काम नहीं है | मैं आपको कुछ तस्वीरें दिखा सकता हूँ”, निखिल इस बात को लेकर बेहद सतर्क था कि उससे मैं कोई कहानी निकलवाने की फ़िराक में हूँ | यह हमारी पहली मुलाकात थी | 

मैंने कहा, “आप मुझे तस्वीरें ही दिखा दीजिए” | 

निखिल ने एक अधेड़ उम्र व्यति की ओर इशारा करते हुए कहा , “मिस्टर पाल, प्लीज़ हेल्प दिस जेंटलमैन” | 

“हलो सर, माइसेल्फ अमलेंदु दे” मैंने हाथ आगे बढाया | 

मिस्टर पाल ने थोड़ा संकोच के साथ कहा, “नमस्कार, देखिए अभी तो बहुत व्यस्तता है | आप ऐसा कीजिए कि किसी दिन मेरे दफ्तर में आ जाइए तो आराम से बात हो सकती है” | उसने अपना एक कार्ड मुझे पकड़ा दिया | 

अगले ही हफ्ते मैं मिस्टर पाल के कालेज स्ट्रीट वाले दफ्तर में था | मिस्टर पाल ने एक किताब संपादित की है मरिचझापी  पर | किताब में निखिल की खींची कई तस्वीरें भी शामिल हैं | मिस्टर पाल ने बड़े आदर से मुझे बैठने को कहा और चाय मँगवाई | 

चाय की पहली चुस्की अभी मेरे गले तक नहीं पहुँची थी कि मिस्टर पाल ने अपना संशय मेरे सामने रख दिया | उसने साफ़ शब्दों में पूछा, “क्यों जानना चाहते हैं आप मरिचझापी के बारे में ? अब तो भुक्तभोगी भी भूल चुके उस काले अध्याय को” | 

“बताता हूँ | पहले चाय ख़त्म कर लूँ”, मैंने माहौल को ज़रा हल्का करने के लिए कहा | 

मिस्टर पाल ने मुस्कुरा कर कहा, “प्लीज़” ..और इस बीच वह अपने जरुरी काम निबटाता रहा |

मैं आराम से चाय पीता रहा | चाय ख़त्म करके प्लेट सोफे से दूर फर्श पर रखते हुए मैंने कहा, “मैं पिछली सर्दियों में मरिचझाँपि गया था, मिस्टर पाल | कुमिरमारी के बहुत सारे लोगों से भी मिला | पूरे तीन दिन बिताये मैंने सुंदरबन में | और ऐसी कई यात्राएँ अब मुझे करनी पड़ रही हैं” | 

मिस्टर पाल के लिए यह बिलकुल अप्रत्याशित नहीं था | 

“तब तो आपने काफी कुछ पढ़ा भी होगा इस बीच | अध्ययन किया होगा” | 

“पढ़ रहा हूँ | सत्य तक पहुँचने की चेष्टा कर रहा हूँ” | 

“क्या करेंगे सत्य जान कर, अमलेंदु बाबू” ? मिस्टर पाल ने ज़रा एलर्ट होते हुए एक बार फिर मेरे सामने अपना सवाल दोहराया | 

“किताब लिखूँगा” , मैंने बहुत संयत होकर उसकी आँखों में झाँकते हुए अपना जवाब उसके सामने स्पष्ट कर दिया | 

“अच्छा ! ‘ए तो खूब भालो कथा’ | क्या लिखने जा रहे हैं आप ? रिसर्च वर्क लिखेंगे शायद, वो अमिताभ घोष वाली ‘हंग्री टाइड’ पढ़ी है आपने ?”, मिस्टर पाल ने सहज होते हुए कहा और मेरी तरफ देखता रहा | 

“उपन्यास.. मैं एक उपन्यास लिख रहा हूँ मरिचझाँपि  पर”, मेरे जवाब से मिस्टर पाल को थोड़ा विस्मय सा हुआ लेकिन उसने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा, “जरुर लिखिए | काफी चैलेंजिंग काम हाथ में लिया है आपने | हमने मरिचझापी के भुक्तभोगी शरणार्थियों की आपबीती पर एक किताब पब्लिश की अभी गत वर्ष | दारुण कष्टमय जीवन रहा उनका | अपने ही देश में भिखारी बन गए वे लोग” |

“मैंने पढ़ी है आपकी वो किताब | उस तरुण ऐक्टिविस्ट कार्तिक की आत्मकथा सबसे प्रमाणिक है इस किताब में, दिल को छूती है | क्या आप किसी प्रकार मुझे कार्तिक से मिलवा सकते हैं या कोई फोन नंबर ही..”, मैंने मिस्टर पाल की तरफ बड़ी उम्मीद से देखते हुए पूछा | लेकिन मेरी उम्मीद बड़ी जल्दी ही टूट गई जब उसने बताया कि उस व्यक्ति के साथ अब उसका कोई “योगायोग” नहीं रहा” | 

मुझे लगा मिस्टर पाल मुझसे कुछ छुपा रहा है | बिना योगायोग के यह कैसे संभव था कि ऑपरेशन मरिचझाँपि के दशकों बाद किसी भुक्तभोगी से उसकी आपबीती लिखवाई जाए और उसे छाप दिया जाए | मिस्टर पाल ने निखिल की खींची कुछ तस्वीरें अपनी किताब में सार्वजनिक की हैं | लेकिन वे सारी तस्वीरें ऑपरेशन के पहले की हैं | 

“देशभाग के बाद असंख्य ‘मानुष’ उस पार से पलायन के लिए मजबूर होकर इस पार आये | उनके घर जलाये जा रहे थे | उनकी संपत्ति लूटी जा रही थी | उनकी स्त्रियों का धर्षण हो रहा था | वे भूखे नंगे लोग इच्छामती पार करके उसपार से इसपार आये थे | बेघर, बेवतन | वे रिफ्यूजी थे, उद्बास्तु थे | वास्तुहारा मानुष थे वे | वे सैंतालिस के बाद से इसपार आते रहे थे, चौंसठ में भी आये और सत्तर के बाद भी | इसपार वे शरणार्थी शिविरों में रहते रहे | लेकिन सत्तर बाद वाले फेज में, इसपार के किसी कैम्प में उनके लिए जगह नहीं थी | उन्हें गाड़ियों में भर-भर कर दूर दण्डकारण्य भेज दिया गया | सरकार के लिए वे बोझ थे | अठहत्तर में इधर सरकार बदली | इस बीच वे संगठित हो रहे थे | पता नहीं किस प्रलोभन के वशीभूत वे लाखों की तादाद में सुंदरबन के इस मनहूस द्वीप पर आ बसे”, मिस्टर पाल  बीच-बीच में बोलता जा रहा था | 

“आपको क्या लगता है, एक सरकार ऐसे असहाय लोगों पर गोली क्यों चलाएगी, असंख्य गरीब लोगों की हत्या क्यों करेगी कोई सरकार” ?  मैंने मिस्टर पाल से सवाल किया | 

मिस्टर पाल ने इस बार कोई जवाब नहीं दिया मुझे | वह देर तक छत की तरफ देखता रहा | मकान पुराना था और उसकी छत गाटर डालकर सुर्खी-चुने की ढलाई से बनी थी | लम्बी साँस छोड़ते हुए उसने संक्षिप्त सा एक उत्तर मेरी तरफ उछाल दिया , “अमलेंदु बाबू, असंख्य मानुष मारा गियेछे” | 

“लेकिन रेकार्ड कहता है कि सिर्फ दो मारे गए थे | और यह सिर्फ एक इवैक्युएशन ड्राइव था”, मैंने सरकारी तथ्य का हवाला देते हुए मिस्टर पाल  को याद दिलाया | 

“नो इट वाज़ नॉट लाइक एनी इवैक्युएशन ड्राइव, अमलेंदु बाबू | इट वाज़ ए जेनोसाइड ! गणहत्या समझते हैं न आप” ?  मिस्टर पाल ने निष्कंप कंठ से कही थी यह बात | और इसके बाद लम्बे समय तक हम दोनों चुपचाप बैठे रहे | 

“यकीन नहीं होता मिस्टर पाल”, मैंने आगे बात बढ़ाने की एक आखिरी कोशिश की | 

“अच्छा आप भी तो अध्ययन कर ही रहे हैं न | उपन्यास भी लिख रहे हैं | तो कुछ तो सूत्र जोड़े होंगे आपने भी”, मिस्टर पाल अब मुझे ड्रिल करने की कोशिश में था | वह आगे भी बोलता रहा, “और इन सूत्रों के सहारे ही तो आप कोई कहानी कह पायेंगे | एक थियरी तक तो पहुँचना होगा न आपको” | 

“थियरी के बहुत करीब हूँ मैं, मिस्टर पाल”, कहते हुए उस दिन के लिए मैंने विदा लिया | 

निखिल ने वाकई कुछ बेहतरीन तस्वीरें उतारी थीं | तेरह महीने की अल्पायु बस्ती में क्या-क्या नहीं आबाद कर दिया था उन हाथों ने | लेकिन उनके आबाद सपनों ने वन-विभाग के ‘प्लान्टेशन स्कीम’ को उजाड़ तो कर ही दिया था | फिर भी यह वैसी कोई बड़ी वजह तो फिर भी नहीं थी कि सरकार उनपर गोली चलवा दे | बहुत सारे सूत्र इस अंतर्कथा को जोड़ते थे | गोली क्यों चली, इस यक्ष-प्रश्न पर आकर तमाम सूत्र उलझ जाते थे | इन उलझे हुए सूत्रों की तलाश जरुरी थी | कहते हैं कि जो सत्य इतिहास से छूट जाता है वह लोक कथाओं और किंवदंतियों में मिलता है | लोक कथाओं और किंवदंतियों में इतिहास से निर्वासित सत्य बचा रहता है | इतिहास से निर्वासित सत्य के अनुसंधान के लिए मेरा बार-बार मरिचझापी-कुमिरमारी जाना जरुरी था | 

तो आइए प्रिय पाठक, मैं अमलेंदु दे, इस अनुसंधान में आपको अपने साथ लिए चलता हूँ |


उस दिन सुबह से ही कुहासा सा | धुंध में कुछ साफ नजर नहीं आता था | फरवरी के शुरुआती दिन थे और हवा में सिहरा देने वाली ठंडक थी | जेम्सपुर से हमें मरिचझापी जाना था | श्यामल मण्डल और सुकुमार भोर से ही तैयारी में जुटे हुए थे | मनोरंजन मृधा जेम्सपुर में हमारे मेजबान थे, श्यामल के ‘पिसे मोशाय’ यानि फूफा | श्यामल कुमिरमारी के मूलनिवासी ठहरे | पिता की मृत्यु के बाद हिस्से की जमीन जायदाद बेच-बाच कर सोनारपुर आ बसे हैं | लेकिन सामाजिक इतने कि कुमिरमारी में सभी रिशतेदारों के साथ हर दुख-सुख में शरीक होते हैं |

आठ बजते-बजते पिसे मोशाय ने सबको आवाज दी – ‘आर देरी कोरा जाबे ना, बेरिये पोड़ते होबे एबार” | उनका अनुमान था कि मरिचझापी जाने में दो-तीन घंटे से कम समय नहीं लगेगा इसलिए देर नहीं करनी चाहिए | नाव लग चुकी थी | खाने-पीने का सामान वे सुकुमार को लेकर भोर में ही नाव पर रखवा चुके थे | लौटने में संध्या हो जाएगी | लौटते वक़्त हमें कुमिरमारी भी जाना था | यह हमारी योजना में था | हम सब घाट पर आ गए | पिसे मोशाय की टूरिस्ट बोट हमारे लिए तैयार थी | टूरिस्ट बोट पर अकेला टूरिस्ट मैं, यानि अमलेंदु दे, मरिचझाँपि की यात्रा के लिए तैयार था | मेरे साथ श्यामल मण्डल, सुकुमार, पिसे मोशाय और वह चालक जो इस नाव से हमें मरिचझाँपि-कुमिरमारी की यात्रा पर ले जाने वाला था, ये सारे लोग सहयोगी के रूप में थे और इस बात से काफी रोमांचित थे कि मैं मरिचझापी की कथा के अनुसंधान में यहाँ आया हुआ हूँ | 

जेम्सपुर, सुंदरबन क्षेत्र के सातजेलिया द्वीप पर है और हमें खाड़ी क्षेत्र में और दक्षिण की ओर यात्रा करनी थी | हमारे दाहिने सजनेखाली फॉरेस्ट रेंज के जंगल थे और बायीं ओर लोकालय | नाव तट छोड़ चुकी थी और दक्षिण की ओर बढ़ रही थी | कुहासा घना था और जल्द ही उसके छंटने के आसार दूर दूर तक नजर नहीं आते थे | मुश्किल से सौ मीटर सामने का पथ समझ में आता था | श्यामल मण्डल से मैंने पूछा –“कि, रोद उठबे तो नाकि” ? मेरी चिंता यह थी कि धूप न निकली तो हम कुछ भी देख नहीं पायेंगे, तसवीरें लेना तो दूर की बात है | पूरा श्रम व्यर्थ जाएगा | पिसे मोशाय ने मेरा मंतव्य ताड़ लिया और मुझे सांत्वना देते हुए बोले –“चिंता नेई बाबू, आर एकटु बेला गोड़ाले रोद्दुर उठबे’ | उनके अनुभव पर भरोसा करने के अलावा कोई उपाय भी नहीं था मेरे पास | हवा तेज हो रही थी | मैंने बैग से चादर निकाल कर उसे शरीर पर लपेट लिया | 

यह समय ज्वार का था | समुद्र का पानी नदियों की तरफ चढ़ रहा था | हम धारा के विपरीत चल रहे थे | दाहिने जंगलों की तरफ फॉरेस्ट विभाग ने नाइलोन के जाल का बेड़ा डाल रखा था हालांकि जगह पर यह काटा फटा हुआ भी दिखता था | जंगलों से बाघ निकलकर लोकालय की ओर न आने पाये इसके लिए सुरक्षादृष्टि से यह इंतजाम किया गया था | एक जैसे हरे भरे पेड़ दोनों तट पर दिखते थे | ये होगला गाछ हैं, मैनग्रोव एरिया में पाये जाने वाले वृक्ष | सातजेलिया की तरफ जिधर लोकालय है उधर एक सिरे से नदी पर बांध निर्मित है | नियमित ज्वार भाटे और लहरों की मार से तट के कटाव को रोकने के उदेश्य से | दूसरी ओर सजनेखाली के जंगलों में केवड़ा के वृक्ष ध्यान खींचते हैं, लंबे और छरहरे पेड़ जिनकी पतली और हल्की नर्म हरी पत्तियाँ जंगल के हिरणों का प्रिय आहार है | हेतल के वृक्ष जगह नजर आते थे, रॉयल बंगाल टाइगर जिनमें शिकार के लिए छुपे हो सकते थे | पेड़ों की डालियों पर बंदरों की उछल कूद नजर आ जाती थी यदा कदा | 

सुकुमार ने इस बीच बोट के नीचे किचेन में लूची और आलूदम तैयार कर लिया था और हमारे लिए प्लेट लेकर हाजिर था | सुकुमार के हाथों का यह हुनर भी गज़ब था और इसीलिए सुंदरबन की किसी भी यात्रा में श्यामल मण्डल सुकुमार को साथ लिए बिना नहीं चलते | हम बोट की छत पर कुर्सियाँ डाल कर बैठे थे | घण्टा भर नदीपथ पर यात्रा के उपरांत लूची आलूदम के बाद चाय का अपूर्व स्वाद लेते हुए मन में अगर कोई प्रार्थना थी तो बस यह कि धूप निकल आए किसी तरह | पिसे मोशाय का मेरे प्रति अनुराग था कि वे मरिचझापी-कुमिरमारी की इस यात्रा में हमारे साथ सिर्फ इसलिए चल रहे थे कि हमें किसी तरह की असुविधा न हो | उधर से आ रही एक  ट्रेलर बोट को आवाज़ देकर उन्होंने पता करना चाहा कि उनके पास मछलियाँ हैं क्या | शायद वे दोपहर के खाने के बारे में अभी से सोच रहे थे | मेरी तरफ देखते हुए बोले,” बाबू, पाखीरालय होए छोटो मोल्लाखाली दिए घुरे गेले ताड़ाताड़ी होतो किन्तु आमि आपनाके एकटु लोम्बा पथे निए जाच्छि, सामने रायमंगल पोड़बे, मरिचझापीर जंगल पोड़बे, आपानार भालो लागबे” | मेरी आशंका किन्तु अब भी बनी हुई थी | कुहासा बदस्तूर जारी था | मैंने कहा,” रोद उठले तबे तो भालो लागबे” | उनकी आँखों में विश्वास की चमक थी, बोले, “बाबू, एक्खुनई रोद उठबे, चिंता नेई” | 

मनोरंजन मृधा के तजुर्बे का हमें कायल होना पड़ा | साढ़े नौ बजे का वक़्त रहा होगा | कुहासा धीरे धीरे कम हो रहा था | धूप की सुनहरी आभा आसमान में आश्वस्ति की सूचना लेकर आ रही थी | सामने अपार जलराशि थी | आर पार कुछ समझ में नहीं आता था | श्यालम मण्डल ने पिसे मोशय की ओर देखते हुए पूछा, “एबार कि रायमंगले एशे पोड़लाम” ? पिसे मोशाय ने बताया कि सामने मोहाना से हमें बायीं ओर मुड़ना होगा और अब हमारे दाहिने जो जंगल आएगा वह माइचझाँपि फॉरेस्ट का पश्चिमी भाग है | मरिचझाँपि फॉरेस्ट का भूखण्ड उत्तर से दक्षिण की तरफ मानव जिह्वा के आकार का है | हमारी इस यात्रा का लक्षित पड़ाव मरिचझाँपि का उत्तर-पूर्वी कोना था | जहाँ तक जाने में अभी घण्टों का सफर बाकी था | 

सातजेलिया द्वीप का दक्षिणी भाग हमारे बायें हाथ की तरफ था और मरिचझाँपि के जंगल दाहिनी तरफ | सजनेखाली फॉरेस्ट रेंज हम पीछे छोड़ आए थे | इस भू-भाग की खासियत यह थी कि इसके एक तरफ लोकालय और दूसरी तरफ जंगल था | लोकालय से स्त्री-पुरुष छोटी-छोटी डोंगियों में मीन पकड़ने निकल पड़े थे | मीन का तात्पर्य चिंगड़ी के शैशव अवस्था के बीज-शिशु | यह इनके जीविकोपार्जन का प्रमुख स्रोत है | नदी तट पर केकड़े पकड़ने के लिए उतरे स्त्रियाँ और बच्चे यत्र-तत्र दिखाई देने लगे हैं | हमारी बोट मरिचझाँपि के जंगलों का पश्चिमी किनारा छूती हुई उत्तर दिशा में बढ़ रही थी | आसमान अब एकदम साफ हो चुका था | सर्दी का असर धीरे-धीरे कम हो चला था | आधे घंटे से कुछ ज्यादा वक़्त गुजर जाने के बाद सामने एक मोहना नजर आने लगा था | अब हम छोटो मोल्लाखाली के दक्षिणी-पूर्वी कोने और कुमिरमारी के दक्षिणी-पश्चिमी कोने को देख पा रहे थे | सातजेलिया को अपने बायें छोड़कर अब हमें मरिचझापी के उत्तरी भू-भाग को अपने दाहिने लेते हुए आगे बढ़ना था | इस बीच बांग्लादेश की बड़ी मालवाही जहाजें भी हमारे बगल से गुजर रही थीं | 

श्यामल मण्डल ने अंगुली के संकेत से दिखाया कि उसपार कुमिरमारी द्वीप का पालामारी घाट दिखाई दे रहा है और वापसी में हम यहाँ उतरेंगे लेकिन अभी हमें बागना फॉरेस्ट कैम्प ऑफिस में सरकारी अनुमति-पत्र के लिए जाना है | यह कोरानखाली नदी है | उत्तर में कुमिरमारी और दक्षिण में इसके मरिचझाँपि है | हम मरिचझाँपि को अपने दाहिने रखते हुए पूरब की ओर बढ़ रहे थे और मरिचझापी के उत्तर-पूर्वी भूखण्ड के करीब आ चुके थे | मनोरंजन मृधा ने एक वेदी की ओर संकेत करते हुए कहा,”ओरा एईखानेतेई प्रोथोम मारीचझाँपिर माटीते पा फेले छिलो” | वहाँ एक वेदी थी जिसे देखकर लगता था कि नियमित पूजा पाठ के लिए लोग आते रहते हैं | यह सुंदरबन के जंगलों में पूजी जाने वाली वनदेवी का स्थान था | बाँस और घास-फूस की छोटी सी छावनी थी जिसमें वनबीवी की प्रतिमा रखी है | मन्नत के लाल धागे और रंगीन कपड़े बंधे हुए | नदी के तट पर मानव-निर्मित बाँध के अवशेष अब भी सुरक्षित थे | बारह-तेरह महीने की आयु वाली इस उजाड़ बस्ती के कभी साबुत होने के भग्नावशेष | भीतर जंगल की ओर जाता हुए रास्ते नजर आते हैं लेकिन घने जंगल में नजर दूर तक इन रास्तों का पीछा नहीं कर पाती | उत्तर से दक्षिण की तरफ मरीचझाँपी के इस भूखण्ड के बीच से झिल्ला नदी भीतर की ओर बहती है | उस तरफ कुमिरमारी का बुधवार बाजार है, पालामारी घाट से पूरब की ओर | मैंने अपने मोबाइल फोन का वीडियो ऑन कर दिया और नाव को तट से सटा कर चलने को कहा | हर एक दृश्य चीज को मैं कैमरे में कैद कर लेना चाहता था | बीच बीच में स्टिल फोटो भी लेता रहा | कभी यह इलाका आबाद था | अब यहाँ मौत का सन्नाटा पसरा था | 

आगे आकार हमें एक और मोहाना मिला | मरिचझाँपि का उत्तर-पूर्वी कोना अब खत्म हो रहा था | मोहाने के उस तरफ और पूरब जाने पर बायीं ओर हेमनगर और दाहिने कालिकापुर फॉरेस्ट रेंज के जंगल | मरिचझाँपि के पूर्वी भाग की तरफ नदीपथ से बूड़िडाबरी जाने का मार्ग है जो सुंदरबन कोर एरिया की तरफ जाता है | मरिचझाँपि के उत्तर-पूर्वी कोने से तिरछे कुमिरमारी द्वीप पर बागना फॉरेस्ट कैम्प का ओफिस है | यहाँ बॉर्डर सेक्योरिटी फोर्स की एक टुकड़ी तैनात रहती है | यहाँ से हमें जंगल में प्रवेश के लिए आधिकारिक अनुमतिपत्र लेना था | हमने अधिकारियों को अपने आने का उद्देश्य बताया | हनें अनुमति मिल गई लेकिन इस हिदायत के साथ कि मरीचझाँपि के जंगल में कहीं भी नाव से उतरने की कोशिश न की जाए | वनविभाग के अधीन यह इलाका बशीरहाट रेंज में आता है | मरीचझाँपी अब एक जनशून्य द्वीप है | सन अठहत्तर में बांग्लादेश से पलायन करने वाले शरणार्थी जो दंडाकरण्य के शिविरों में बसाये गए थे उन्होंने यहा आना शुरू कर दिया था |

बागना फॉरेस्ट कैम्प ऑफिस से लौटते हुए हम एकबार फिर अपनी नाव को मरीचझाँपि के तट से सटाकर चल रहे थे | इस भूखंड के एक-एक इंच को बहुत करीब से देखते हुए और इतिहास के गर्भ में पड़ी एक दारुण कथा को महसूस करते हुए | लौटते हुए हमारी नाव पालामारी घाट पर आकर लग गई | श्यामल मण्डल के काका-जेठू सब यहीं बसे हैं इसलिए उनका अतिरिक्त मोह इस जगह से है | नाव से उतरते हुए पिसे मोशाय ने हमें सतर्क किया कि भाटा जल्द ही पड़ने वाला है इसलिए जल्दी ही वापस आ जायें | लेकिन कुमिरमारी में हमें कुछ ऐसे लोगों से भी मिलना था जो सन अठहत्तर-उनयासी की स्मृतियाँ सहेज कर रख सके हों | श्यामल मण्डल यहाँ के स्थानीय व्यक्ति थे लिहाजा यह कोई मुश्किल काम भी न था | 

एक बुजुर्ग जिनकी उम्र अस्सी के आसपास थी अपने घर के ओसारे में बैठे मिले | उन्हें दमे की गंभीर शिकायत थी | शक्ल से बीमार लगते थे | हमने पूछा उनसे, “आठात्तर साले जे शरणार्थीरा मरीचझाँपिते एशेछिलो तादेर कथा किछु मोने आछे कि” ? बुजुर्ग ने गमछे के कोर से अपनी आँख पोंछी और कहा,”अत्याचार कोरेछिलो, घर बाड़ी पूड़िए दिएछिलो, सब कथा आमार मोने आछे” | 

यह कहानी बहुत पहले से शुरू होती है | वह 1970 के  ज्येष्ठ मास की एक उदास शाम थी | खुलना के झरखाली ग्राम में सूरज अभी-अभी डूबा था पश्चिम में | रोज की तरह बाबा ने कार्तिक को आवाज लगाई. ‘ओरे खोका, दरजा’टा भालो कोइरा लागाइया घुमोते जास तोरा | आमि पाहाराय जाइताशी” |

पिछले कुछ महीनों से यह रोजमर्रा का काम हो गया है | रात के खाने के बाद पाड़ा-प्रतिवेशी सारे पुरुष मानुष नियम से मोहल्ले की हिफाजत के लिए रात जागकर पहरा देते | लूटपाट और आगजनी की घटनायें बढ़ती जा रही थीं | कार्तिक  के लिए यह सब एक पहेली जैसा था | वह सोच नहीं पाता कि अपने ही लोगों से आखिर हमें खतरा क्यों है | वे हमें क्यों मार देना चाहते हैं | क्या बिगाड़ा है हमने उनका |

झरखाली के माहौल में तनाव बढ़ता ही जाता था | कार्तिक देख रहा था कि लम्बे समय से अनवर उसके साथ खेलने नहीं आता | ठीक से बात भी नहीं करता था वह कार्तिक  से | उसदिन कार्तिक उसे खाने के लिए कुछ देने लगा तो उसने बड़े रूखेपन से जवाब देते हुए कहा.’ आमार खिदा नाई रे कार्तिक, तुई तोर खावार’टा खास’ | 

कार्तिक ने निश्चय किया कि आज संध्या वह फुटबाल खेलने के लिए अनवर को बुलाने उसके घर जायेगा | गोधूलि वेला में जब वह उसके घर पहुँचा तो दरवाजे पर ही ढेर सारे लोगों को देखकर ठिठक गया | बड़ी मस्जिद वाले मौलवी के साथ पंद्रह-बीस लोग आँगन के बाहर आमगाछ के नीचे खाट पर बैठे थे | वह केले के मोटे तने की ओट में छुप गया | अनवर कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा था | 

मौलवी ने अपनी टोपी ठीक करते हुए कहा, ’बेशी मेलामेशा कोरा दोरकार नाई | जेरकम बोइललाम सेइरकम कोइरा दरकार सकलके, बुझले तो ?’ सबने आज्ञाकारी बालक की तरह अपने सिर हिलाए | मौलवी ने उठते हुए कहा, ’आशताशी ताहोले’ | सब उठ खड़े हुए | अनवर के पिता मौलवी के पीछे-पीछे घर के बाहर तक आये | वह इन लोगों को देखकर थोड़ा घबरा गया और घबराहट में केले के झोंप से बाहर निकलने को हुआ | अनवर के पिता ने केले के झोंप की तरफ से पत्तों की सरसराहट की आवाज सुनी तो उधर नजर घुमाते हुए पुकारा, ‘के रे, के ओई कलागाछेर झोंपेर आड़ाले !’ कार्तिक  तबतक बाहर आ चुका था | वह सकुचाते हुए बोला,’चाचा, आमि कार्तिक, अनवर बाड़ीते नेई ?’ 

दौड़ता हुआ कार्तिक आँगन की तरफ गया | तब तक वे लोग घर से बाहर की ओर निकल चुके थे | अनवर भीतर कमरे में लेटा कोई किताब पढ़ रहा था | 

‘कि रे, तोर कि होइताशे, खेलते जाशनि केनो एतोदिन ?’

‘आमार शोरीर’टा भालो नाई रे | जर-जर भाब’ 

कार्तिक ने अनवर के माथे पर हाथ रखकर देखा | कपाल एकदम ठंडा था | उसे आश्चर्य हुआ कि वह इसतरह झूठ क्यों बोल रहा है |

‘कोई जर, किस्सू होयनि तोर | एरकम बायना धोरताछिश केनो रे पागला’ ?

 ‘तुई एखुन बाड़ी जा | काइल जामू माठे’, अनवर ने पीछा छुड़ाने की गरज से कहा | कार्तिक  उछल कर उठोन से बाहर निकल आया | जाते जाते जोर की आवाज लगाई उसने, ‘काल आशिस किन्तु !’

अँधेरा घिर रहा था | अब खेलने का समय भी निकल चुका | माठ पार कर वह खाल के किनारे किनारे ऊँचे बाँध को पकड़कर चलने लगा | सहसा आसमान में धुंए का गुबार देखकर वह आश्चर्य से भर उठा | इतना बड़ा गुबार चूल्हों के धुंए से संभव नहीं था | धुँआ मंडलपाड़ा की ओर से उठ रहा था | कहीं आग लगी हो जैसे | वह तेजी से धुँए की दिशा में भागा | 

पूरा मंडलपाड़ा धू-धू कर जल रहा था | उसका घर भी आग की चपेट में था | सबलोग बाहर से आग बुझाने में लगे हुए थे | एक अजीब सी चीख-पुकार का शोर चतुर्दिक व्याप्त था | सबकुछ जल तरह था | सारे लोग मिलकर भी आग पर काबू नहीं पा रहे थे | पोखर से दौड़-दौड़ कर वे पानी लाते थे और जलते घरों पर उलीच देते थे | बाँस, मिट्टी और फूस के घर दहक रहे थे | जबतक आग कुछ मद्धम पड़ती सबकुछ नष्ट हो चुका था | अगली सुबह वे राख के ढेर के बीच से अपने बचे-खुचे सामान निकाल रहे थे | उनके सिर पर कोई छत नहीं थी | 

अकेले मंडलपाड़ा ही नहीं खुलना जिले के इस भाग के गाँवों में इस तरह की वारदातें अब आम होने लगी थीं | देखते देखते पलायन आरंभ हो गया | बचे खुचे माल-असबाब को लेकर ये लोग अपनी जान की हिफाजत के लिए सीमांत की तरफ निकलने लगे, सीमा पार जाने के लक्ष्य से | वह 1970  का ज्येष्ठ मास था | 

झरखाली में पिछले कई महीनों से तनाव की स्थिति थी | नदी पर बाँध की मरम्मत का काम चल रहा था जिसमें मंडलपाड़ा से काफी लोग काम पर लगे हुए थे | ठेकेदार बड़ी मस्जिद के मौलवी का निकट संबंधी था | उसदिन ठेकेदार नशे में था | एक लड़के के ऊपर साइकिल समेत गिर पड़ा | थोड़ी कहा-सुनी हुई | वह गालियाँ देने लगा | लड़का भी अड़ियल स्वभाव का | और गलती तो ठेकेदार की ही थी | वह क्योंकर दबता उससे | आवेश में हाथ का फरसा चला दिया ठेकेदार पर | ठेकेदार वहीँ ढेर हो गया | नशे में तो वह था ही | उठकर घर जाने लायक भी उसकी स्थिति नहीं थी | अगलेदिन मस्जिदपाड़ा से एकदल लोग पंचायत के लिए बैठे गाँव में | 

मस्जिदपाड़ा की पंचायत का मानना था कि यह आक्रमण छोटी जात वाले हिन्दुओं की तरफ से था और उन्हें इस देश में ही रहने का कोई हक़ नहीं | कार्तिक  के परिवार में माँ-बाबा के आलावा एक बहन थी | थोड़ी सी जमीन थी उनके पास जिससे किसी तरह गुजारा हो जाया करता था | अब वह भी उनसे छिन रहा था | अपने बचे-खुचे माल-असबाब के साथ वे कालीबाड़ी के मंडप में शरण लेने को बाध्य थे | बाबा अपनी जान-पहचान के लोगों से संपर्क में थे जो उनको इस मुसीबत से बाहर निकाल सकें | लेकिन कहीं से कोई मदद भी नहीं आती थी | पास में अनाज के दाने तक नहीं थे | 

कार्तिक  का स्कूल जाना बंद हो गया | वह इसी साल नवीं क्लास में गया था | पढ़ाई लिखाई की कौन कहे अब तो जान के लाले पड़े थे | शाक के पत्ते उबालकर पेट जिलाते हुए जैसे तैसे जिंदा होने का अहसास था | वह भी कितने दिनतक चलता जब अपने आस-पास के लोग देश छुड़ाने पर आमादा हों | पूर्णिमा की रात थी वह जब वे, अपने समय के शरणार्थी कालीबाड़ी मंडप में रात के बीत जाने की प्रतीक्षा में थे और नींद थी कि आँखों में समाती न थी | बाबा ने कार्तिक  की माँ को धीमे स्वर में बताया, ’एकजन दालालेर साथे कथा कोइयाछि | से आमादेर ओपारे जावार बंदोबस्त कोइरा दिबे | टाका चाइछे | कलशी बाटी बिक्री कोइरा होक बा जेभावे होक एकटा किछु कोइरा दोरकार | एइभावे क’दिन बाँचा संभव | देशछुट आमादेर केऊ आटकाइते पारबे नाको |’ 

कलशी-बाटी बेचकर भला कितने पैसे आते | माँ के कुछ गहने थे जिन्हें अब बेचने की नौबत आन पड़ी थी | स्त्री-धन ऐसे ही दुस्समय में पुरुषों को बचाता आया है | माँ के गहने इस तरह जाते देखकर कार्तिक  को भारी कष्ट हो रहा था | वह सोचता था एकदिन वह माँ के लिए ढेर सारे हगने बनवायेगा | जब वह बड़ा होकर कमाने लगेगा | बाबा का चेहरा इनदिनों कैसा तो कठोर सा हो गया है | कम बोलते हैं | कम खाते हैं | ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ | 

दलाल के कहे अनुसार वे मय सामान घाट पर एकदम काकभोर में ही जा पहुँचे | दलाल का कहीं अता पता नहीं था | घाट पर उस अँधेरे में भी निरुपाय असहाय असंख्य मानुष-जन अलग अलग दिशाओं से आ रहे थे | मुँहमाँगी कीमत देकर डिंगी लेना जिनके बस में था वे उसपार जाने के लिए निकल जा रहे थे | किसिम किसिम के दलालों को घेरे लोग अपनी अपनी गुहार लगाते थे | कार्तिक  ने अधीर होकर पूछा, ‘बाबा, लोक’टा आशबे तो ?’ बाबा ने आश्वस्त करते हुए कहा, ‘आशबे आशबे, कथा दियेछे मानुष’टा’ | दलाल ने अपना नाम गोलाम मोहम्मद बताया था और आश्वस्त किया था कि वह उनके लिए डिंगी का इंतजाम तो करेगा ही, वह उनके साथ-साथ भी चलेगा और सीमांत पार करा देगा | 

गुलाम मोहम्मद जब घाट पर पहुँचा तबतक काफी देर हो चुकी थी | एक ही डोंगी घाट के किनारे लगी हुई थी, वह भी लगभग लोगों से भरी हुई | कार्तिक  का किशोर मन उस डोंगी की प्रतीक्षा करते करते ऊब चूका था जो उन्हें लेकर उसपार जाने वाली थी | वह एक क्षण के लिए बाबा के चेहरे को देखता तो दुसरे ही क्षण नदी घाट की ओर | इस संकट के आगे उन्हें भूख प्यास का अनुभव भी नहीं हो रहा था | गोलाम मोहम्मद को दूर से आता हुआ देख बाबा की आँखों में चमक आ गई | वे उठ खड़े हुए और लम्बी साँस छोड़ते हुए बोले, ‘जाक, लोक’टा आशछे | एबार ओ किछु एकटा व्यवस्था कोरबे |’ 

‘आमादेर डिंगी’टा कोई ?’ 

‘आजकेर दिन’टा आमार बासा’ते काटान | आपनादेर आज राइत्तिरे’ई पार कोइरा दिमू |’

गोलाम मोहम्मद उन्हें तफसील से समझाता रहा कि डिंगी के लिए भारी छीना-झपटी चल रही है | एक माझी उन्हें आज की रात ही पार करा देगा | तब तक वे उसके घर पर आराम कर सकते हैं | 

गोलाम मोहम्मद का घर साधारण सा एक कच्चा मकान था | साग-भात का इंतजाम गोलाम मोहम्मद की बीवी ने कर दिया | भूख से बेहाल यह चार जन का यह परिवार उस दिन मोसलमान के घर शरणार्थी था | रात जब थोड़ी  गहराने लगी तब एकबार फिर वे घाट पर आये | गोलाम मोहम्मद आगे आगे चल रहा था | एक डिंगी घाट पर लगी थी जिसमें कुछ परिवार पहले से ही अपनी गठरियाँ और अन्य सामान लेकर बैठे हुए थे | गोलाम मोहम्मद ने उनसे डिंगी में बैठ जाने को कहा | उसने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि कुछ देर बाद एक दूसरी डिंगी में वह भी उस पार आ जायेगा और उनसे मिलेगा | रूपए-पैसे वह पहले ही ले चुका था | उसके कहे पर विश्वास करने के अलावा इन लोगों के पास कोई उपाय भी नहीं था | वे उसपार उतरने के बाद घंटों गोलम मोहम्मद की प्रतीक्षा करते रहे | 

और गोलाम मोहम्मद नहीं आया | 

  【 प्रस्तुत उपन्यास अंश, बनारस से रामजी यादव के सम्पादन में "गाँव के लोग" पत्रिका के अंक: 14, मई-जून 2019 में प्रकाशित है 】


       
           (चित्र: मरिचझाँपि की यात्रा में लेखक)

 


Monday, April 5, 2021

बात चलाइए रसूल चाचा..

【प्रस्तुत गल्प 'मरिचझाँपि" उपन्यास का एक अंश है जो एक स्वतंत्र कहानी के रूप में प्रकाशित है - नील कमल】


अंततः सुरेन्द्रनाथ ने भी इच्छामती पार करने का मन बना लिया | सुरेन्द्रनाथ दे ढाका के एक स्कूल में अध्यापक हैं | भाषा आंदोलन के साथ उसके आरंभिक दिनों से से ही जुड़े रहे हैं | पौष संक्रांति का पर्व अभी अभी बीता है | घरों में पीठा-पुलि और पायस का स्वाद अभी लोगों की जीभ से लगा ही है | एक मित्र सेमिनार के काम से दूरवर्ती जिले से आकर ढाका में सुरेन्द्रनाथ के आवास पर ही रुके हैं | दो तल्ले का पुराना मकान है जिसमें ऊपर-नीचे मिला कर आठ कमरे और एक बड़ा सा हॉल है | पैतृक मकान विरासत में मिला है सुरेन्द्रनाथ को | व्यावसायिक परिवार है | कपड़े का कारबार रहा है | सुरेन्द्रनाथ के पिता ने आजादी से पहले ही कोलकाता में मकान ले लिया और भवानीपुर में एक बड़ी सी दुकान  लेकर वहाँ भी व्यवसाय शुरू कर दिया | बड़े भाई कोलकाता का कारोबार देखने लगे और वहीं व्यवस्थित हो गए | पिता ढाका से कोलकाता के बीच आते जाते रहते थे | कारोबार बड़ा था | लेकिन सुरेन्द्रनाथ का मन व्यवसाय में नहीं लगा | शिक्षा दीक्षा और छात्रों के बीच इन्हें ज्यादा सुख मिलता है | और ढाका के हवा पानी से उन्हें बहुत प्रेम भी है | सेमिनार का दिन नजदीक आ रहा था और तैयारियाँ ज़ोरों से चल रही थीं लेकिन शहर का माहौल लगातार खराब हो रहा है जिससे दूरवर्ती जिले से आने वाले लोगों की तरफ से दबाव भी बढ़ रहा है कि ऐसी परिस्थिति में सेमिनार को स्थगित कर देना ही बुद्धिमानी का काम होगा | अच्छा रहेगा कि सेमिनार के स्थगित होने की खबर अगले दिन के अखबार में चली जाये | वे तैयार होकर बाहर आये | 

वे पैदल ही चल रहे थे | सड़क पर भीड़ भाड़ नहीं थी | अमूमन संध्या के समय सड़क पर आने जाने वालों का स्वाभाविक दृश्य आज उपस्थित नहीं था | अभी वे दो सौ मीटर ही गए होंगे सड़क पर कि दूसरी ओर से कुछ युवक भागते हुए आते दिखाई दिये | युवकों की इस भीड़ में एक लड़का सुरेन्द्रनाथ को पहचानता था | उसने इन्हें उस तरफ जाते देख सतर्क किया |

-    उस तरफ न जाइयेगा, सर !

अब घर लौट आना ही उचित है सोचकर वे लौट चले | सड़क स्तब्ध है | 

मकान के निचले तल्ले पर “ढाकेश्वरी वस्त्रालय” का बोर्ड लगा हुआ है | दुकान पिछली कई पीढ़ियों से चल रही है और शहर की प्रतिष्ठित दुकान है | सुरेन्द्रनाथ के पिता ने ही दुकान के लिए रसूल मियां को कर्मचारी रख लिया था | बाप दादा का खड़ा किया व्यवसाय है | आमदनी भी कम नहीं है | लौटते हुए एकबार ठिठक कर रुके और कुछ सोचते हुए दुकान के कर्मचारी रसूल चाचा को निर्देश देते हुआ कहा कि तुमलोग दुकान बंद कर दो और घर चले जाओ, परिस्थिति ठीक नहीं लग रही है | साथ ही हिदायत भी दी कि जाते हुए दुकान की चाबी ऊपर देते जायें | रसूल चाचा ईमान के पक्के और उसूल पर जान कुर्बान करने वाले नेक इंसान हैं और पुराने वफ़ादार हैं | 

सेमिनार होता हुआ दिख नहीं रहा था | प्रतिनिधियों तक खबर पहुंचाने का कोई और उपाय अब सोचना होगा | कल इसपर विचार किया जायेगा ऐसा सोचकर सुरेन्द्रनाथ मित्र को बैठकखाने में ले गये | पत्नी रान्नाघर अर्थात रसोई में व्यस्त है | बैठकखाना में दीवार पर एक ऑयल पेंटिंग टंगी हुई है | पेंटिंग एक सुंदर काठ के फ्रेम में बँधी है जिसे सुनहरे रंग से पॉलिश किया गया है | यह एक ग्रामीण स्त्री का पोर्ट्रेट है | आँखें बड़ी-बड़ी और आकर्षक हैं | केश घने काले और लम्बे लेकिन बिखरे हुए | ऐसे केश वाली स्त्री को एलोकेशी कहते हैं | स्त्री के माथे पर एक लाल बिंदी है | शरीर पर एक साड़ी लिपटी हुई है जिसके पाड़ यानि के किनारे हरे रंग के हैं | पोर्ट्रेट में स्त्री के मुख पर एक अद्भुत पीड़ा है | बैकग्राउंड में धान के खेत हैं और मेघ से भरा आकाश | बड़ी काव्यात्मक पेंटिंग है यह | पोर्ट्रेट के निचले कोने में दाहिने तरफ अमलेंदु नाम अंकित है | अमलेंदु अर्थात सुरेन्द्रनाथ दे का एकमात्र पुत्र संतान | 

अमलेंदु उसी स्कूल मे पढ़ता है जिसमें सुरेन्द्रनाथ अध्यापक हैं | सुरेन्द्रनाथ की स्त्री गृहणी हैं | तेरह साल की आयु में ही विवाह हो गया था | फरीदपुर के एक सम्पन्न परिवार से हैं | सुरेन्द्रनाथ की किसी से शत्रुता नहीं है | पाड़ा प्रतिवेशी सम्मान करते | अमलेंदु को घर में सब प्यार से सोना बुलाते हैं | अमलेंदु का जन्म जिस दिन हुआ वह दिन भाषा आंदोलन का एक ऐतिहासिक दिन था | उन दिनों अन्य भाषा प्रेमी युवकों की ही  तरह उनकी जुबान पर एक ही गीत होता, “अमार सोनार बांग्ला आमि तोमाय भालोबाशि” | इसी गीत की प्रेरणा से सुरेन्द्रनाथ ने पुत्र को पुकार का नाम दिया, सोना | सुरेन्द्रनाथ ढाका विश्वविद्यालय से मास्टर की डिग्री लेकर जब निकले तब भाषा आंदोलन अपने शबाब पर था | उसी साल चुनावों में मुस्लिम लीग को भारी शिकस्त मिली और यूनाइटेड फ्रंट की विजय हुई | इसके बाद ही बांग्ला भाषा को पूर्वी बंगाल में राज्य की भाषा की मर्यादा हासिल हुई | अगले साल सुरेन्द्रनाथ को स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई | अमलेंदु के हर जन्मदिन पर पूरा परिवार भाषा दिवस का भी पालन करता है | 

यह 1964 का जनवरी महीना है | अमलेंदु अपने कमरे में ड्राइंग खाता में चित्र बनाने बैठा है | अचानक नीचे से कोई सोना सोना कह कर आवाज दे रहा है | अमलेंदु चित्र बनाने में इतना एकाग्रचित्त है कि आवाज को अनसुना कर देता है | लेकिन लगातार सोना सोना की पुकार से उसका ध्यानभंग हो गया और वह दो तल्ले की खिड़की से ही नीचे गेट की तरफ झाँकने लगा | नीचे कुछ लोग दल बना कर खड़े हैं | वह ध्यान से देखता है कि ये कौन लोग हैं | अरे, यह तो रूपा है, इसके साथ ये कौन लोग हैं और नीचे क्या कर रहे हैं | रूपा बाजर के पीछे वाली बस्ती में रहती है | अमलेंदु दौड़कर नीचे जाता है | 

-    क्या रे रूपा, क्या हुआ !

-    तुम लोगों ने क्या कुछ सुना नहीं ? कर्फ़्यू जारी हो गया है | हमें भय लगता है | हम तुम्हारे घर में ही रुक जायें ? कर्फ़्यू खत्म होते ही चले जायेंगे | रूपा ने अभी बात समाप्त भी नहीं की थी कि उसका पिता भी आ चुका था | ऐसा पहले भी कई बार हुआ है | जब भी कोई अशांति,  दंगा या मारपीट होती है वे अमलेंदु के घर में शरण लेते हैं | रूपा के पिता की बाजार में सब्जी की दुकान है | 

-    आ जाओ | कहकर अमलेंदु ने गेट पूरा खोल दिया | 

वे भीतर आ गए तो फिर से गेट बंद करके वह पिता को सूचना देने के लिए बैठकखाना में गया | सुरेन्द्रनाथ मित्र के साथ किसी विषय पर गंभीर चर्चा में व्यस्त थे ऐसा उनके स्वर के चढ़ाव और हाथों के संचालन से साफ दिख रहा था | सोना से कर्फ़्यू की खबर सुनते ही घड़ी की तरफ देखने लगे | रेडियो पर समाचार का समय था | बुलेटिन अभी शुरू ही हुई थी | ढाका सहित पूर्वी बंगाल के कई इलाकों में कर्फ़्यू आज रात से ही लागू कर दिया गया है | पुलिस को सतर्क कर दिया गया है | सर्वसाधारण को बाहर न निकलने की वार्ता के साथ बुलेटिन समाप्त हुई तो सुरेन्द्रनाथ के माथे पर सिलवटें उभर आईं | 

पाड़ा के कमजोर परिवार किसी भी मुसीबत की घड़ी में सुरेन्द्रनाथ के घर में शरण के लिए आते  थे | सबके लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते थे | कुछ ही घंटों में कई परिवार उनके यहाँ जमा होने लगे | नीचे तल्ले वाले हॉल को खोल दिया गया | ये लोग भूखे भी होंगे, सोचकर भंडार से चावल निकाल कर ले आये | नीचे ही सबके लिए भोजन का इंतजाम किया गया | 

सड़क पर थोड़ी देर पहले पुलिस की गाड़ी गश्त देती हुई निकली है | अचानक एक भीड़ अल्ला हु अकबर का नारा लगाती हुई इधर से गुजरती है | 

मास्टर मोशाय! ओ मास्टर मोशाय !  थोड़ी देर बाद नीचे से कोई गंभीर आवाज सुनाई देती है | सुरेन्द्रनाथ ने गेट पर आकर देखा तो शफीक और इस्लाम खड़े थे | 

ये दोनों ही मस्जिद वाली गली में रहते हैं और कपड़े  के कारबार से जुड़े होने के नाते सुरेन्द्रनाथ को पहले से जानते हैं | दोनों ने सिर पर टोपी पहन ररखी थी | ये बहुत जल्दी में हैं | इस्लाम ने एक पल भी न बरबाद करते हुए धीरे से कुछ कान में बताया | उनके कहने का तात्पर्य यह था कि यह इलाका जितनी जल्दी हो सके छोड़कर निकल जायें | सरकार की तरफ से एक लॉरी जल्दी ही उन्हें निकालने के लिए आयेगी, तैयार रहें | 

आधी रात के समय सरकार की तरफ से एक लॉरी आई | सुरेन्द्रनाथ ने खड़े होकर हर एक को गाड़ी में चढ़ाया और अंत में अपने मित्रों के साथ सपरिवार खुद भी चढ़े | मकान को ताला लगा दिया गया था | 

लॉरी ऊपर से खुली है | सड़कों पर उपद्रवियों की नारेबाजी जारी है | चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही हैं | लॉरी कोर्ट की तरफ मुड़ गई | कोर्ट कम्पाउन्ड में शहर से अल्पसंख्यक परिवारों को निकाल कर इसी तरह लॉरियों में लाया जाता रहा | वह जनवरी की मनहूस सर्द रात थी | अगले दिन कोर्ट कम्पाउन्ड से सारे लोगों को ढाका शहर के ही एक कॉलेज में ले जाया गया | यह कॉलेज अब एक रिलीफ़ कैम्प है | 

एक वृद्ध सामने पेड़ के नीचे बैठे हैं | उम्र सत्तर के आसपास होगी | खद्दर की धोती और कुर्ता पहने हुए हैं | कंधे से एक झोला लटक रहा है | ज़ोर ज़ोर से सांसें ले रहे हैं और रह रह कर सीने को सहला रहे हैं | कभी गमछा से माथे का पसीना पोंछते हैं | सुरेन्द्रनाथ वृद्ध को काफी देर से देख रहे हैं | कुछ सोचकर वे वृद्ध के निकट जाते हैं |

-    नमस्कार, क्या आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ ?

-    कौन हो तुम बाबा, मैंने पहचाना नहीं |

-    सुरेन्द्रनाथ दे | स्कूल में अध्यापक हूँ | बल्कि कहना चाहिए कि अध्यापक था | अभी तो प्राण बचाने के लिए यहाँ शिविर में शरणापन्न एक सामान्य नागरिक | 

-    बैठो बाबा, थोड़ा जल कहीं से ला सकते हो ? तृष्णा से गला सूख रहा है |

-    अवश्य | सुरेन्द्रनाथ थोड़ी देर बाद एक पात्र में जल लेकर लौटे | वृद्ध ने पानी पिया | बचा हुआ जल सुरेन्द्रनाथ ने वृद्ध के माथे पर छींटा और गमछा भिंगो कर उसका हाथ पोंछने लगे | थोड़ी देर में वृद्ध को आराम आ गया | 

-    क्या आपका परिचय जान सकता हूँ ? संकोचपूर्वक वृद्ध की आँखों में देखते हुए सुरेन्द्रनाथ ने प्रश्न किया |

-    जोगेन चक्रवर्ती नाम है |  सप्ताह भर से इष्ट मित्र और आत्मीय स्वजन के यहाँ व्यक्तिग्त प्रयोजन से आया था | कल किसी तरह प्राण बचा कर यहाँ पहुँचा | 

-    अचानक इस तरह दंगे भड़क उठेंगे यह किसी ने सोचा नहीं था | 

-    दंगा ! आप इसे दंगा कहते हैं ? वृद्ध की आँखों में वितृष्णा उभर आई | उसने बात जारी रखी | दंगे में दो दल या दो संप्रदाय आपस में लड़ते हैं | एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं | दोनों तरफ के लोग घायल होते हैं, मारे जाते हैं | यह कैसा दंगा है जिसमें एक दल मार रहा है और दूसरा प्राण बचा कर भाग रहा है | जो पीड़ित हैं, जो मारे जा रहे हैं, कोई उनको बताएगा उनका अपराध आखिर क्या है ? किसी का क्या अहित किया है इन लोगों ने जो इनको इस प्रकार मारा जा रहा है | ये लोग तो राजनीति नहीं करते, पड़ोसी से झगड़ा तक नहीं करते, इसी देश के नागरिक हैं, इस देश के सुख दुख के साथ जुड़े हुए लोग हैं, देश की उन्नति में इनका भी हाथ है, ये भी सरकार को ‘खाजना’(टैक्स)  देते हैं, तो आखिर इनको क्यों मारा जा रहा है ? क्यों मेरी आँखों के सामने मेरे बच्चों को, बहन-बेटियों को मारा जा रहा है ? क्यों हमारे घर की स्त्रियों को अपमानित किया जाएगा , इसका कोई उत्तर है किसी के पास ? वृद्ध अचानक उत्तेजना में आकर धाराप्रवाह बोले जा रहे थे | 

-    आपका शरीर ठीक नहीं है | आप शांत हो जाइये | सुरेन्द्रनाथ ने वृद्ध को शांत करने ले लिए उसके सामने हाथ जोड़ लिए | वृद्ध अब हाँफ रहा था | 

-    सत्तर साल का जीवन जी चुका हूँ, बाबा | मृत्यु का भय नहीं मुझे | शरीर अब मन का साथ नहीं दे रहा | एक जमाने में जब अनुशीलन समिति का सदस्य हुआ करता था तब इस शरीर पर इतना भरोसा हुआ करता था कि अकेला भी सौ-पचास लोगों से मुक़ाबला कर सकता हूँ | आज लेकिन वह दिन नहीं है | आज आक्रमण करने वाले को कैसे रोकूँ यह मेरी समझ में नहीं आता | वृद्ध अपने अतीत में डूबता उतराता हुआ दिख रहा है | 

रात भर अलग अलग जगहों से लोगों को ले आने का सिलसिला जारी रहा | सब के सब असहाय | 

-    जानते हो बाबा, भारत की स्वाधीनता के लिए बीस साल से भी ज्यादा समय जेल में बिताया है मैंने | कई साल इधर उधर भाग कर छुपकर असहनीय कष्ट में जीवन बिताया है | स्वाधीनता आ गई है | अब यही स्वाधीनता का पुरस्कार है मेरा कि यहाँ आधीरात के समय असहाय इस कॉलेज के रिलीफ़ कैम्प में पड़ा हूँ | वृद्ध इस समय भीषण अपमानित और असहाय महसूस कर रहा था | उसके चेहरे पर तनाव था और आँखें ऐसी कि जैसे अभी छलक पड़ेंगी | 

-    हम सब इस दुख में साथ हैं | धैर्य रखिये | सुरेन्द्रनाथ ने वृद्ध के कंधे पर हाथ रखते हुए सांत्वना के दो शब्द कहे | इसके अतिरिक्त उन्हें अभी कुछ सूझ भी नहीं रहा है | 

यह कॉलेज ढाका के पुराने कॉलेजों में से एक है | प्रिंसिपल मिजानुर रहमान सुरेन्द्रनाथ के पूर्व परिचित हैं | वे दयालु स्वभाव के व्यक्ति हैं | कॉलेज प्रबंधन की तरफ से उनसे जितना बन पड़ा उतनी व्यवस्था में कोई कसर नहीं बाकी रखा | कॉलेज के सारे कमरे खोल दिये गए हैं | पीने का पानी भी प्रयोजन के अनुसार उपलब्ध कराया है | लेकिन इतने लोग जो भूखे प्यासे जाने कहाँ कहाँ से यहाँ ले आए गए थे उनको क्या खिलाया जाएगा अगले दिन यह चिंता का विषय तो है ही | कॉलेज के पास ऐसा कोई फंड तो होता नहीं | प्रशासन से अभी तक कोई ऐसी बात अभी हुई नहीं है | शायद कल प्रशासन के लोग कुछ बतायें कि कैसे क्या करना है | 

रिलीफ़ कैम्प के लोगों के माध्यम से डराने वाली खबरें आ रही हैं | 

प्रिंसिपल मिजानुर रहमान अगले दिन सुबह से ही प्रशासन से लगातार संपर्क बनाने की कोशिश में हैं | प्रशासन से बताया जा रहा है कि राहत सामग्री पहुँचाई जा रही है | लेकिन दोपहर तक कहीं से कोई राहत का समान नहीं आ सका है | रहमान साहब कहने के लिए तो मुसलमान हैं लेकिन नमाज़ी नहीं हैं | इंसानियत से ऊपर कोई मजहब नहीं इसी भावना पर चलने वाले नेक इंसान हैं | उन्हें पता चला कि जिला प्रशासन की तरफ से कुली राहत के लिए अनाज और वस्त्र के साथ भेजे गए हैं | लेकिन उनके भरोसे कब तक बैठा जा सकता था | निकट के परिवारों से संपर्क किया | कुछ समाजसेवी संस्थाओं को राहत के लिए सामने आने के लिए प्रेरित करते रहे | मुहल्ले के कुछ शरीफ इंसान मदद के लिए आगे भी आए | शिविर में हजारों की संख्या मेन उपस्थित लोगों के लिए खिचड़ी का इतजाम तमाम दिक्कतों के बाद कराया जा सका | 

प्रिंसिपल मिजानुर रहमान साहब का ऑफिस घर | सुरेन्द्रनाथ दे कुर्सी पर बैठे हैं | सुरेन्द्रनाथ के लिए पत्नी और बच्चे के साथ रहने लायक एक अलग कमरे की व्यवस्था रहमान साहब ने अपने कमरे के बगल में ही कर दी है | अगले कुछ दिन तक तो यहाँ रहना ही है | आगे परिस्थिति के अनुसार जैसा वे ठीक समझें | घड़ी कि टिकटिक की आवाज़ साफ सुनाई देती है | घड़ी के मुताबिक तीन बज रहे हैं | एक मौन पसरा है | मौन कि आवाज़ ही इस समय सबसे प्रकट है | रहमान साहब ने चुप्पी को तोड़ा |

-    क्या हो गया है दुनिया को ! क्या इसी आज़ादी का सपना देखा था लोगों ने ?

-    आज़ादी की कीमत वसूली अंग्रेज़ हुकूमत ने | मजहब को मजहब से लड़ाया | 

-    सच तो यह है कि मजहबों के बीच की दीवार और भी पहले पड़ गई थी मुल्क में | क्या आपको नहीं लगता ?

-    और भी पहले, मतलब ? 

-    जब आधुनिक ज्ञान विज्ञान के साथ बंगाल का रेनेशांस आया देश में तब क्या हुआ याद कीजिए | 

-    अंग्रेजी शिक्षा आई, वैज्ञानिक चेतना आई | 

-    पहली बात आपने ठीक कही | लेकिन दूसरी बात आपकी उतनी ठीक नहीं दिखाई देती | 

-    वह कैसे ? समाज सुधार के कार्यक्रमों के पीछे वैज्ञानिक चेतना नहीं रही ?

-    वह कैसी चेतना थी ? उसका नेतृत्व कौन लोग कर रहे थे ? 

-    मूलतः कोलकाता के समाज सुधारक |

-    यही तो ! ठीक कहा आपने  और स्पष्ट कहिए तो कोलकाता के उच्चवित्त एलिट क्लास लोग थे ये | और भी स्पष्ट कहा जाए तो एलिट हिन्दू | 

-    इस तरह से तो सोचा नहीं था मैंने | 

-    अब भी सोचने में कोई हर्ज नहीं है | देखा जाए तो बंगाल रेनेशांस का नेतृत्व हिन्दू एलिट श्रेणी के हाथ में ही रहा | और जो सबसे गड़बड़ बात हुई वो यह कि अधिनिकता और ज्ञान विज्ञान के साथ सनातन हिन्दू धर्म की एक ‘जगाखिचुरी’ तैयार हुई | जगाखिचुरी समझते हैं न  ? रहमान साहब के चेहरे पर मुस्कान थी | देखिए, इस रेनेशांस के भीतर ही सांप्रदायिकता और श्रेणी भेद के बीज रह गए थे | यह पूरा दौर विज्ञान और आधुनिकता के साथ अपने तमाम धार्मिक पूर्वग्रह को लेकर चल रहा था | 

-    आपकी बात गंभीर है | इसपर विचार करना चाहिए | सुरेन्द्रनाथ ने सिर हिलाकर सहमति जताई |

-    रवीन्द्रनाथ का संकेत याद कीजिए कि शहर तो आधुनिक हो गए लेकिन गाँव मध्य युग में ही रह गए | तो यह कैसी आधुनिकता रही जो शहर केंद्रिक होकर रह गई | बड़े लोगों को ही लाभ देती रही | गरीब खेतिहर किसान मजदूर को क्या मिला ? क्या वंदे मातरम मजहबी नारा नहीं है ? भवानी पूजा, शिवाजी उत्सव क्या मुसलमान को साथ लेकर चल सकते थे ? आर्य समाज, शुद्धि आन्दोलन, गो रक्षा समिति क्या धार्मिक नहीं थे ? मुसलमान को इन चीजों ने अलग थलग कर दिया | अब अलग थलग होकर आदमी कहीं तो गिरता ही है | वे मुल्ला मौलवी की गोद में जाकर गिरे | देखिए, आधुनिक शिक्षा और धर्मीय चेतना ये दोनों साथ नहीं चल सकते | इसका नतीजा जो होना था वही हुआ | 

-    इसके लिए कांग्रेस और लीग दोनों के लीडर दोषी हैं |

-    बेशक हैं | दोनों दोषी हैं लेकिन कांग्रेस ज्यादा दोषी है | चित्तरंजन दास असमय न चले गए होते तो शायद चित्र कुछ और होता | समन्वय से अधिक विभेद करने वाली राजनीति की हमारे लीडरान ने | 

सुरेन्द्रनाथ ने अब तक नहीं सोचा था इस मामले पर | रहमान साहब की बात में तो कोई अस्पष्टता नहीं है | अब यह आग जाने कैसे थमेगी | कोई आर पार नहीं है इसका | कोलकाता में दंगा होता है तो उसका बदला नोआखाली में लिया जाता है | खुलना में दंगे करवाये जाते हैं | रेडियो जब बताता है कि कोलकाता में दस मरे तो खुलना-नोआखाली में बीस को मारकर हिसाब बराबर किया जाता है | कहीं तो थमना ही होगा इस सिलसिले को | 

इस बीच अखबारों में लगातार खबरें आ रही हैं कि माइग्रेशन लेकर भारत जाने वालों की लाइन लग गई है | हिन्दू जो यहाँ संख्यालघु है वह अपना सबकुछ यहीं छोड़ कर भी यहाँ से चला जाना चाहता है | वह जानता है कि उसका कोई भविष्य नहीं है भारत में | उसके सामने भविष्य के नाम पर गहरा अंधकार और अनिश्चितता है | फिर भी रोज माइग्रेशन के लिए हजारों लोग निकल रहे हैं | क्या एकदिन उनको भी सबकुछ यहीं छोड़ कर इस देश का त्याग करना होगा | अचानक सुरेन्द्रनाथ को पत्नी और बच्चे की याद आती है | रहमान साहब से अनुमति लेकर वे अपने कमरे में आते हैं | 

अमलेंदु कमरे में नहीं है | पत्नी फर्श पर एक चटाई पर विश्राम करने के लिए लेटी हुई हैं | 

उधर उस गाछ के नीचे अमलेंदु की बाँह पकड़े रूपा उसे न जाने क्या दिखाने के लिए खींचे ले जा रही है | सुरेन्द्रनाथ अनमना होकर उनका कौतुक देखने लगते हैं | रूपा एक फूल की तरफ संकेत कर रही है | उसे वह फूल चाहिए | उसे विश्वास है कि सोना उसके लिए यह फूल तोड़ कर ला सकता है | इस गोधूलि वेला में इस गाछ की तरफ कोई नहीं है इन दोनों को छोड़ कर | सोना ने लक्ष्य किया कि रूपा के गालों पर एक अजीब सी लाली आ गई है, उसकी आँखें झुकी हैं और होठों में कंपन है | वह सकुचाते हुए फूलों के एक खास गुच्छे को दिखा कर अस्फुट सा कुछ कहती है |

-    सोना, क्या तुम वह फूल तोड़ कर नहीं ल सकते मेरे लिए ? ला दो न सोना | 

सोना के लिए यह मनुहार नया है | रूपा के सम्पूर्ण देह में इस समय एक अद्भुत थरथराहट है | यह क्या है ? उसे क्या हो गया है | सोना को कुछ समझ में नहीं आ रहा | लेकिन इतना उसे अवश्य पता है कि फूल न मिले तो शायद वह रो ही पड़े | 

सोना फुर्ती के साथ गाछ पर चढ़ गया | फूल के गुच्छे बहुत ऊँचाई पर नहीं थे | उसने आसानी से उन्हें तोड़ लिया और अपनी कमीज में खोंस कर डाल से उतरने लगा | 

सुरेन्द्रनाथ को जैसे अचानक कोई बात याद आई | वे रहमान साहब के कमरे की तरफ मुड़ गये | सोना फूल लेकर आगे बढ़ा | चलो, कम से कम अब यह लड़की रोएगी तो नहीं | उसके मन का काम तो हो गया | सोना के मन में एक बड़ा काम कर डालने का संतोष था | वह किसी विजेता की तरह चल रहा था | उसने फूलों का गुच्छा रूपा के हाथ में रख दिया | रूपा के गाल अब भी उसी तरह लाल हैं | उसकी आँखें जमीन की तरफ हैं | एक दबी सी मुस्कान उसके होठों पर खेलने लगी है | सोना को यह सब बोका बोका लग रहा है | यह लड़की ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है | कोई पीछे से सोना को पुकार रहा है | आवाज तो माँ की ही है | उसे लौटना होगा | 

-    चलता हूँ रे, रूपा | इतना कह कर सोना मुड़ जाता है | रूपा मुँह फेर कर खड़ी है | कभी फूलों के देखती है तो कभी सोना को | 

सुरेन्द्रनाथ सपरिवार रहमान साहब के रिहायशी मकान में आ गये हैं | रहमान साहब के यहाँ उस वृद्ध को देखकर सुरेन्द्रनाथ को थोड़ा आश्चर्य हुआ | ये वही वृद्ध हैं जिन्होंने अपना नाम जोगेन चक्रवर्ती बताया था और उस रात कॉलेज में जिनकी मदद सुरेन्द्रनाथ ने की थी | वृद्ध ने सुरेन्द्रनाथ को पहली नजर में पहचान लिया | शाम को रहमान साहब कॉलेज का इंतजाम देखकर लौटे तो फुर्सत के लम्हे में बातचीत का सिलसिला चल निकला | 

-    सड़कों पर मिलिटरी फ्लैग मार्च कर रही है | बहुत तनाव है बाहर | रहमान साहब बहुत चिंतित दिखाई देते थे | घर के मेहमानों की सुरक्षा की चिंता ही इस समय सबसे बड़ी चिंता है |

-    यह फ्लैग मार्च नाटक नहीं तो और क्या है ? जोगेन चक्रवर्ती उत्तेजित हो गए मिलिटरी की चर्चा से | मिलिटरी से जोगेन बाबू को बहुत चिढ़ है | उनका मानना तो यह है कि मिलिटरी की आड़ में शासक की तरफ से एकतरफा अत्याचार करना बहुत आसान हो जाता है | नागरिक प्रतिरोध के दमन के लिए किया गया प्रहसन है यह मिलिटरी फ्लैग मार्च |

-    मिलिटरी के बिना क्या इस भयावह स्थिति पर काबू पाना संभव है ? अभी जैसे हालत हैं, ऐसा लगता तो नहीं है | उन्माद को कैसे काबू में करेंगे ? सुरेन्द्रनाथ ने जोगेन बाबू की स्थापना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुआ कहा |

-    देखिए, ऊपर ऊपर सांप्रदायिक दिखने वाला यह उन्माद असल में सम्पूर्ण रूप से धर्म और संप्रदाय का मामला नहीं है | आप कुछ लोगों को नहीं पसंद करते इसलिए आप उन्हें खत्म कर देना चाहते हैं | यह एक सामाजिक समस्या है | और उससे भी बढ़कर एक सांस्कृतिक समस्या है | इसका समाधान किसी मिलिटरी से संभव नहीं है |

-    सांस्कृतिक पक्ष अवश्य है इस समस्या का | लेकिन जब आग लगी हो तब तत्काल पानी डालना ही उपाय हो सकता है |  इस परिस्थिति में कुआँ खोदने की बात सोचना भावुकता है | रहमान साहब ने हस्तक्षेप करते हुए कहा | नौकर इस बीच सबके लिए चाय ले आया | रहमान साहब ने अपने नौकर को अपने यहाँ रहने के लिए एक कमरा दे दिया है | वह सपरिवार रहमान साहब के मकान में ही रहता है | रहमान साहब ने खुद उठकर अतिथियों को चाय का प्याला पकड़ाया और पूर्ववत अपनी जगह आकर बैठ गए | 

-    देखिए, मैं फिर कहूँगा कि यह मिलिटरी का काम नहीं है | आग को कंबल से ढक देने से आग बुझ नहीं जाती है | थोड़ी देर बाद ही कंबल भी आग पकड़ लेती है | मिलिटरी के ज़ोर से सांप्रदायिकता को डील नहीं किया जा सकता | यह काम जनगण के बीच काम करने वाले, जन भावनाओं को पहचानने वाले लीडरों का है | वे लीडर या तो कहीं छुपे हुए हैं या फिर जेल में बंद हैं | सांप्रदायिक उन्माद का चेहरा भीड़ का चेहरा है | भीड़ को नियंत्रित कौन करेगा | जनता का लीडर या कि मिलिटरी | जोगेन चक्रवर्ती अपनी स्थापना पर अब भी अडिग थे | 

-    उचित कहते हैं आप, जोगेन बाबू | अच्छा आपकी नई किताब का क्या हुआ ? रहमान साहब को यह बातचीत बहुत प्रीतिकर नहीं लग रही है | वे छह रहे हैं कि इसे दूसरी तरफ मोड़ा जाए | जोगेन चक्रवर्ती एक प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं | साहित्य और संस्कृति जगत का एक जाना पहचाना नाम | उपन्यासकर के रूप में जोगेन बाबू की ख्याति है | 

-    प्रूफ का काम देखने ही आया था | कल ही पहुंचा हूँ ढाका शहर में और ... देख ही रहे हैं आप | प्रेस बंद हो गया | और घर लौटना भी संभव नहीं दिखता | 

जोगेन चक्रवर्ती नाटोर जिला के एक छोटे से गाँव में रहते हैं | ढाका के एक प्रेस में जोगेन बाबू का नया उपन्यास प्रकाशन के लिए आया है | प्रेस मालिक से कल सुबह ही बातचीत हुई है | पाण्डुलिपि का पहला प्रूफ तैयार है | अब यहाँ दंगे में फँस गए तो सीधे रहमान साहब को खोजते हुए जैसे तैसे जान बचाते उनके कॉलेज तक आने में में सफल रहे | और इस तरह आज इस बहस का हिस्सा हैं | सुरेन्द्रनाथ दे जोगेन बाबू की तार्किकता और विश्लेषण शक्ति से बहुत प्रभावित हैं | संयोग से दोनों इस समय रहमान साहब के मेहमान हैं | सुरेन्द्रनाथ सोचते हैं कि परिस्थिति स्वाभाविक हो जाए तो जोगेन बाबू के सारे उपन्यास मँगवा कर पढ़ेंगे | जोगेन चक्रवर्ती नाटे कद के साँवले आदमी हैं | चाप दाढ़ी रखते हैं | सिर के बाल अब ज़्यादातर झड़ चुके हैं | आँखें बड़ी बड़ी और पानीदार हैं | बहस में जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं और उत्तेजना में उनकी आँखें और बड़ी हो जाती हैं | एकदम गोल और फैली हुई | 

उस रात रहमान साहब के घर पर पत्थरबाजी हुई | बाहर का गेट मजबूत न होता तो वे तोड़कर भीतर आ गए होते | अगर काफिरों को घर में पनाह दी तो आग लगा देंगे ऐसी धमकी देकर गए हैं | रहमान साहब अब भी भरोसा दिला रहे हैं कि सब ठीक हो जाएगा कुछ दिन बाद | वे प्रशासन से बात करेंगे | लेकिन सुरेन्द्रनाथ ने तय कर लिया कि अपने बचाव के लिए रहमान साहब को और मुसीबत में डालना ठीक नहीं होगा | 

रेडियो पर शहर में आगजनी और लूटपाट की खबरें आ रही हैं | सुरेन्द्रनाथ की दुकान में लाखों का माल है | कीमती साड़ियाँ और दूसरे कपड़े | भगवान न करे वैसी कोई बात हो | लेकिन आतंक मन में जगह बनाने लगा है धीरे धीरे | सुरेन्द्रनाथ सपरिवार कॉलेज के अस्थायी रिलीफ़ कैम्प में आ गए हैं | रहमान साहब को यह अच्छा तो नहीं लगा रहा है लेकिन परिस्थिति को देखकर कुछ करते नहीं बनता | चलो ठीक है उनकी सुरक्षा के लिहाज से कॉलेज ही बेहतर जगह है | पुलिस है कम से कम | कोई असामाजिक तत्व यहाँ हमला तो नहीं करेगा | कौन जाने स्थिति सामान्य होने में कितने दिन लगने वाले हैं | नारायणगंज चटकल और ढाकेश्वरी कॉटन मिल की घटनाओं के बाद माइग्रेशन के लिए भीड़ बढ़ती जा रही है | तरह तरह की अफवाहें फैलाई जा रही हैं | 

रसूल चाचा मिलने आए हैं | सुरेन्द्रनाथ का परिवार रहमान साहब के कॉलेज वाले उसी कमरे में फिर से सोने बैठने लगा  है | अपना घर मकान है इसी शहर में और यहाँ पड़े हुए हैं रिलीफ़ कैम्प के अंदर क्योंकि शहर का माहौल खराब है |

-    शहर का माहौल वाकई बहुत खराब है मालिक | रसूल चाचा ने बताया |

-    अब इससे ज्यादा क्या खराब होगा चाचा | जान बचाना मुश्किल हो चला है | बाहर निकलेंगे तो कौन जाने कत्ल भी हो सकते हैं ये सब लोग | सुरेन्द्रनाथ रसूल चाचा को देखकर भावुक हो उठे |

-    मेरे रहते आप लोगों को कुछ नहीं होगा मालिक | मेरे घर चलिए आपलोग | रसूल के जिंदा रहते कोई हाथ लगा के तो देखे | 

-    नहीं चाचा | हम आपको खतरे में नहीं डाल सकते | मैंने बहुत विचार किया है | हमें कोलकाता चले जाना चाहिए | बात चलाइये मकान और दुकान का वाजिब दाम मिल जाए तो ... आगे कुछ न बोल सके सुरेन्द्र्नाथ | गला भर्रा गया | आँखें सजल हो उठीं | पानी से भरा जग उठाकर वे उठकर मुँह धोने चले गए | लौटे तो अधिक दृढ़ दिख रहे थे | 

-    नहीं मालिक, जल्दबाज़ी न कीजिए | सब ठीक हो जाएगा | रसूल चाचा ने हौसला देने की कोशिश की जिसका असर होता दिखाई नहीं देता था |

-    सोच लिया | आप बात चलाइये, रसूल चाचा | 

[हिंदी अकादमी, दिल्ली की मासिक पत्रिका, "इंद्रप्रस्थ भारती" के मार्च 2021 अंक में प्रकाशित]

- नील कमल (मोबाइल: 9433123379)